मेरी कैलाश-यात्रा | Meri Kailash-Yatra

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Meri Kailash-Yatra by स्वामी सत्यदेव जी परिव्राजक - Swami Satyadev Jee Parivrajak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १० | धर हे । इसलिये दो तीन सज्जन जो मुझे पहुंचाने के लिये शहर से आने वाले थे उनकी मुझे प्रतीक्षा करनी पड़ी। साढ़े पांच बजे के करीब वे महाशय आ गये। ए कने मेरा बोका उठा लिया | परमात्मा का नाम लेकर में यात्राके लिये निकला | अज्मोड़े से कैलाश की ओर जाने में पहले वागेश्वर आ्रातां है ओर वागेश्वर अल्मोड़े से २६ मील की दूरी पर है। तीन मील तक तो हम लोग पांच जने थे । इसके बाद मेने शहर के तीन सज्जनों को लोटा दिया । में और बिद्यार्थी हरिद्त्त दोनों वागेश्वर को ओर चले । हरिदत्त का सामान उठाने के लिये वागेश्वर तक साथ ले लिया था। इधर के पड़ाड़ो पर चीड़के वृक्ष ही अधिक होते हैं। जिधर दृष्टि दोड़ाओ, चीड़ ही चीड़ | गवनंमेटका करोड़ो रुप- ये की आमदनी इन वृक्षों से होती है। प्रत्येक वृत्तके निम्नभाग के किसी स्थान की छाल प्रगट कर उसके नीचे एक मिद्धीका गिलास सा लगा देते हैं; पेड़ कां तेल धीरे धीरे उसमें टपकता ग्हता है । इसीका तारपीन ^1८1€1111716 बनाया जाता है | হস सभी वृत्तों के नीचे ऐसे गिलास लगे हुये देखने आये | पहाड़ी सड़क में चढ़ाव उतार होता ही है कहीं दो मील घढ़ाई तो तीम मील उतार | आठ आठ दस द्स घर जहां बने हों वही गांव है। पहाड़ो के बीच चलते इ॒ये यांत्रीको दूर से घर चमकफते हुये दिखाई देते हैं । घर साफ खुथरे चूने से अच्छी प्रकार पुते इये धूपमें भले बोध होते हैं । खोढियों जैसे खेत ए के ऊपर पक, अपनी हरियाली से आखों को तृप्त करते हैं। ऊंचे ऊंचे पहाड़ों पर गाय भेंस वकरी चरते इ दिखाई दते हें ।




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