रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा | Ram Prasad Bismil Ki Atam Katha
श्रेणी : जीवनी / Biography
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
129
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)4 रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा
चार-पाँच वर्ष में जब कुछ सज्जन परिचित हो गए और जान लिया कि यह.
महिला भले घर की है, कुसमय पड़ने से दीन-दशा को प्राप्त हुई है, तब बहुत-सी
महिलाएँ विश्वास करने लगीं। अकाल भी दूर हो गया था। कभी-कभी किसी
सज्जन के यहाँ से कुछ दान मिल जाता, कोई ब्राह्मण भोजन करा देता। इसी
प्रकार समय व्यत्तीत होने लगा। कई महानुभावों ने, जिनके कोई संतान न थी.
और धनादि पर्याप्त था, दादीजी की अनेक प्रकार के प्रलोभन दिए कि वह अपना
एक लड़का उन्हें दे दें और जितना धन माँगें उतना ले लें। किन्तु दादीजी आदर्श
माता थीं। उन्होंने इस प्रकार के प्रलोभभ की जरा भी परवाह न की और अपने
घच्चों का किसी न किसी प्रकार पालन करती रहीं।
मेहनत-मजदूरी तथा पंडिताई द्वारा कुछ धन एकत्रित हुआ। कुछ महानुभावों
के कहने से पिताजी के किसी पाठशाला में शिक्षा पांने का प्रबंध कर दिया गया।
श्री दादाजी ने भी कुछ प्रयत्न किया, उनका वेतन भी बढ़ गया और वह सात
रुपये मासिक पाने लगे। इसके बाद उन्होंने नौकरी छोड़, पैसे तथा दुअन्नी,
चवन्नी आदि बेचने की दुकान की। पाँच-सात आने रोज पैदा होने लगे। जो
दुर्दिन आए थें, प्रयत्त तथा साहस से दूर होने लगे। इसका सब श्रेय दादीजी को
ही है। जिस साहस तथा धैर्य से उन्होंने काम लिया वह वास्तव मे किसी दैवी
शक्ति की सहायता ही कही जाएगी। अन्यथा एक अशिक्षित ग्रामीण महिला की
क्या सामर्थ्यं (शक्ति) है कि वह नितांत अपरिचित स्थान में जाकर मेहनत-मजदूरी
करके अपना तथा अपने बच्चों का पेट पालन करते हुए उनको शिक्षित बनाए
और फिर ऐसी परिस्थितियों में, जबकि उसने कभी भी अपने जीवन में घर से
बाहर पैर न रखा हो और जो ऐसे कट्टर देश की रहने वाली हो कि, जहाँ पर
प्रत्येक हिन्दू-प्रथा' का पूर्णतःः पालन किया जाता हो, जहाँ के निवासी अपनी
प्रथाओं -की रक्षा के लिए प्राणों की जरा भी चिंता न करते हों। किसी ब्राह्मण,
क्षत्री या वैश्य की कुलवधू .का क्या साहस, जो डेढ़ हाथ का घूँघट निकाले बिना
एक घर से दूरे घर चली जाए।
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