साहित्य में लिखित शब्द की सत्ता और श्रव्य-माध्यम में उसके प्रसारण के आयाम | Sahitya Mein Likhit Shabd Ki Satta Aur Shravya-Madhyam Mein Uske Prasaran Ke Aayam

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Sahitya Mein Likhit Shabd Ki Satta Aur Shravya-Madhyam Mein Uske Prasaran Ke Aayam  by राजेंद्र कुमार - Rajendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[7] अनिवार्य है कि अर्थ और रचनात्मकता के स्तर पर उसका रचनाकार से सवाद हो। परन्तु जिस तरह, 'अपनी कालगति में टी, वी. का पढ़ना उस तरह संभव नहीं है जिस तरह प्रिट-मीडियम की पुस्तक को पढ़ना क्योकि टी, वी, छवियो ओर ध्वनि का अप्रतिहत प्रवाह करता हं ! उसी तरह, रेडियो को भी उसकी कालगति मे पुस्तक की तरह पढ़ना संभव नही ह क्योकि रेडियो भी ध्वनियों ओर छवियो का अप्रतिहत प्रवाह करता है । ठीक इसी तरह, जेसे हम टी वी से तरस्थ होकर नहीं सोच पाते, उससे दूरी बनाकर नही सोच पाते; हम जब भी सोचते हँ उसके भीतर रहकर सोचते है: वैसे ही, रेडियो से भी तरस्थ होकर उसके प्रसारण का विश्लेषण नही किया जा सकता। हम जो भी सोच सकते है, रेडियो-प्रसारण के भीतर रहकर ही । रेडियो के श्रोता के पास वह अवकाश, वह अतराल नही है । क्षण भर के लिए उसका ध्यान भटका ओर प्रसारण का अगला हिस्सा उसकी पकड़ से जा छूटेगा, एसे कि उसे दुबारा पकड़ना असभव होगा। स्चता रेडियो का श्रोता भी है। खासतौर से कल्पनाशील ओर रचनाधर्मी प्रसारण मे लेकिन एक तो, एेसा प्रसारण कुल प्रसारण का बेहद न्यूनांश होता ह दूसरे, सचना से बार- बार साक्षात्कार की सुविधा का एकात अभाव नए-नए अर्थ-स्तर उद्घाटित करने क सुख सं श्रोता को वचित रखता है । सहभागिता का दूसरा स्तर संवेदना का होता है ओर रेडियो-प्रसारण यहोँ भी साहित्य की तुलना मे उल्टी दिशा में है। “सचार ने संप्रेषण मे बाधा पहुँचाई है। यह अटपटा लग सकता है पर, संचार संचरित होते हैं, सप्रेषित नहीं करते, संप्रेषण नही होने देते।””? पढ़ा-लिखा आधुनिक श्रोता/पाठक/दर्शक दुनियाँ की और तमाम चीज़ों के साथ ख़बरों का भी उपभोक्ता होता है। परन्तु उसके ध्यान में वह सब रोज़ सुबह-शाम लाया जाता है जो पिछले दिन या गई रात या आज दिन कही न कहीं घट चुका होता है और जिसके कुछ अवशेष उस समय भी घट रहे होते हैं जिस समय यह उपभोक्ता समाचार पढ़, देख या सुन रहा होता है। “उसकी 1 'टी, वी, की भाषा और विज्ञापन की भाषा' लेखक : सुधीश पचौरी, 'हस' नवंबर 1998--पृ., 64 2 श वही-- प° 64 3. निबंध 'उत्तर आधुनिकता के विभिन्न सदर्भ--रमेश ऋषिकल्प--'हस” फ़रवीी, 1998--पृ, 81




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