अद्वैतवाद | Adwaitwad

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Adwaitwad by गंगाप्रसाद उपाध्याय - Gangaprasad Upadhyaya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ ४२ ) परंतु नचिकेता बुद्धिमान शिष्य है। वह भोग्य पदार्थों के नहीं चाहता । वह कहता है-- श्वेभावा मर्त्य॑स्य यदन्‍्तकेतत, सर्वेद्धियाणां जर्यन्ति तेज: । पि स्व॑ः नीवितमल्पमेव, तवेव वाहास्तव नृत्तगीते ॥ ( कठ १।२६ >) कि भोग्य पदाथ तो क्षणिक हैं। में इनके लेकर क्या करूँगा | संसार के प्रलोभन और नाच-गान केवल मौत के लिये ह । स्थायी जीवन का इनसे कुछ भी लाभ नहीं होता। इस लिये सुककेा सूल तत्व का उपदेश करो । वस्तुतः पञ ओर मनुष्य में यही भेद है । पञ्च व्त॑मान ऊ भोगों पर दृष्टि रखता है, परंतु मनुष्य भूत और भविष्य का भी विचार कर के अपने भविष्य के उज्ज्वल बनाना चाहता है । मनुष्यों में भी जे पाशविक वृत्तियों के आधीन हैं, वे खाने-पीने की वस्तुओं के पाकर ही तृप्त द्वा जाते हैं । परंतु उच्च श्रेणी के पुरुषों की इतने से तृप्ति नहीं होती । वह संसार के जटिल प्रं पर सवेदा विचार करते रहते हैं । ८ मैं क्‍या हैँ १ ५, “आत्मा क्या है १ ” संसार क्या है १ ” “ पहले क्या था? ” ओर “ फिर क्या हा जायगा ? ” आदि प्रश्न उनके मस्तिष्क में चक्र लगाया करते हैं। प्रत्येक युग और प्रत्येक देश के मनुष्यों में मूल तत्व के खोजने की तीत्र इच्छा पाई जाती है। भिन्न भिन्न विद्वानों त भिन्न भिन्न प्रकार से इसको खोज की है और उनके परिश्रमों के परिणाम भी एक नहीं हैं, तथापि उन सब में एक बात सामान्य है अथोत्‌ “ इन प्रश्नों के समाधान का प्रयत्न । ? यह प्रश्न आदि सृष्टि में भी ऐसे ही गू ढ़ थे, जैसे आज हैं। दस हजार




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