प्रेम सागर | Prem Sagar

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Prem Sagar by ब्रजरत्न दास brajratna daas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १० ) ह गया, पर बे ऐसे उत्तम, मोटे और सफेद बाँसी कागज पर छपे थे कि अब तक नए ओर दृढ़ बने हुए हैं. । लल्लजी चोबीस वर्ष तक फोट विलियम कालेज में अध्यापक रहे ओर वि? सं० १८८९ में पेंशन लेकर स्वदेश लोटे | बे अपना छापाखाना भी आते सप्रय नाव पर लादकर साथ ही आगरे लाए ओर वहाँ उसे खोला । आगरे में इस छापेखाने को जमाकर ये कलकत्ते लौट गए ओर वहीं इनकी मृत्यु हुईं। इनकी कब ओर केसे मृत्यु हुईं, इसका दूत्त इनके जन्म के सपय के समान निशित रूप से ज्ञात नहों हुआ । परंतु पेशन लेते समय इनकी अवस्था लगभग ६० बे के हो चुकी थी । यद्यपि इनके भाइयो को संतान थी, पर ये निस्संतान ही रहे । इनकी पत्नी का इन पर असाधारण प्रेम था और वे इनके कष्ट के समय बराबर इनके साथ रहों | ये वेष्णब तो अवश्य ही थे, पर भिस संप्रदाय फे थे, सो ठीक नहीं कहा जा सकता । संभवतः ये राधावह्ठभीय ज्ञात होते हे । इतना तो स्पष्ट ही विदित है किं ये कोड उत्कट विद्वान्‌ नहीं थे ओर न किसी विद्या के आचाये होने का गबे ही कर सकते थे । संस्कृत का बहुत कम ज्ञान रखते थे, उदें और अंगरेजी भी कुछ कुछ जानते थे, पर ब्रज भाषा अच्छी जानते थे । कवि भी ये कोद उच्च कोटि के नहं थे | पस्तु जिस समय ये अपनी लेखनीं चला रहे थे, उस समय ये वास्तव मेँ ठेठ दी का स्वरूप स्थिर कर रहे थे । हिंदी गद्य के कारण ही ये प्रसिद्ध ओर विख्यात हुए हैं। कुछ लोगो का यह कथन है कि यदि येआजक तोल होते




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