साहित्य - सुषमा | Sahitya-sushma

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आचार्य नंददुलारे वाजपेयी - acharya nanddulare vajpayi

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श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र -Shri Lakshminarayan Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ ) उनका अथ वही नहीं है जो एक चिकोशा क्षेत्र या चतुर्भज দবীস की रेखाओं का होता है; उसी प्रकार काव्य के वाक्य, पद आदि अद्याधारण रूप में संश्लिष्ट श्रथ ब्वनित करते दै। इती असाधारण अर्थ-ग्रहण से काव्य एक विशेष एकार का आनन्द प्रदान करता है जिसे संस्कृत के सादिव्य- शास्री श्रलौकिकं श्रागन्द्‌ कते है । कवि अपने काव्य का निर्माण करता हुआ वसच्तु-बगत्‌ और कल्पना- जगत्‌ की अ्रनोखी बस्ठुओं को रूप प्रदान करता है। वह ऐसी-ऐसी श्रत्युक्तियों का प्रयोग करता है जो साधारण दृष्टि से स्वप्च में मी सत्य नहीं हो सकतीं | बह ऐसी-ऐसी उपमाएँ लाकर रखता है जिनके केबल एक गुण-बविशेष या ग्राकार- विशेष का ही अर्थ ग्रह कर लिया जाता है और शेष सब से कोई प्रयोजन ही नदरी स्ख जाता । काव्यनगत्‌ कै ये व प्रसंग रहस्यत्रय हैं; परन्तु इनके सत्य होने में संदेह नहीं किया जा सकता। ये जैसे श्राप से आप हो छझपना अनोखापन दूर कर सत्य बनकर प्रतिष्ठित ही अते ई। हस एक नाटक का अभिनय देखते हैँ | उस्त नाटक के पात्रों से हमारा कमी का परिचय नहीं।' थी अभिनेता हमारे सामने उपस्थित होकर अभिनय कर रहे हैं उनसे हमारा कोई संबंध नहीं | जो कुछु हम देखते हैं वह इमारी वास्तविकं परिस्थितिं से बहुत दूर है | पर क्या बात है कि हम उससे प्रभावित दते दै बात वदी है भो एक चित्र के देखने पर होती है | नाटक मी एक प्रकार का चित्र ही दै | वह्‌ ठीक चित्रकला के नियमों का पालन करता है। चित्र छोटे से छोटे आकार में बड़े से बड़ा बोध करा सकता है। प्रत्येक रेखा की एक श्रनोखी, व्यंजना हो जाती है। यही कला का सत्य है। यही काव्य का भी सत्य है। साधारणुत; काव्य के सत्य से इमारा अमिग्राय यद्द होता है कि काव्य में उन्हीं बातों का बर्णुन नहीं होना चाहिए, और न दोता ही है, जो वास्तविक सत्यता की कसौटी पर कली जा सकती हैं, पर उनका मी वसुन होता है और हो सकता ই জী सत्य हो सकती हैं। अब प्रश्न यह. उठता है कि यदि यह बात है तो काब्य में अत्युक्ति अलंकार का कोई स्थान ही नहीं होना चाहिए | बहू तो स्बथा असत्य होगा | पर बांत ऐसी है कि इस अपने वणम द्वारा पाटको के हृदय पर्‌ वही माव जमाना चाहते हैं जो हमारे हृदय-




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