कल्पलता | Kalplata
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
206
श्रेणी :
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हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।
द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नजाखून क्यों बढ़ते हैं !? ७
ऐसा कोई दिन आ सकता है, जब कि भनुपष्यके नाखूनोंका' बढ़ना
बन्द हो जायगा | प्राणिशास्त्रयोंका ऐसा अनुमान है कि मनुष्यका अना-
নন্দ ভাজা उसी प्रकार झड़ जायगा, जिस प्रकार उसकी पूँछ झड़ गयी
है उस दिन मनुष्यकी प्रछता मी ठत हो जायगी | शायद उस्र दिन
यह मरणास्रोंका प्रयोग. भी बन्द कर देगा । तत्रतक इस बातसे छोटे
बच्चोंको परिचित करा देना वाब्छनीय जान पड़ता है कि नाखंगका बढ़ना
मन॒ष्यके भीतरकी पश्चताकी निशानी है और उसे नहीं बढ़ने देना मनुष्य-
की अपनी इच्छा है, अपना आदर्श है।. बृहत्तर जीवनमें अख्र-श्जोंका
बढ़ने देना सनुम्यकी पदयुताकी निशानी है ओरं उनकी बाद्को रोकना
मनुष्यत्वका, तकाजा है। भनुप्यमें जो इणा है, जो अनायास--बिना
सिखाये-आ जाती है, वह पश्चुत्वका द्योतक है ओर अपनेकी संगत रखना,
दूसरेके मनोभाबोंका आदर करना मनुष्यका स्वधर्म है। बच्चे यह জান,
तो अच्छा हो कि अभ्यास और तपसे प्राप्त बस्त॒एँ मनुष्यकी. महिसाकों
सूचित करती हैं| | पी |
सफलता और चरितार्थतामें अन्तर है। मनुष्य मरणाझ्लेंके संचयनसे,
बाह्म उपकरणोंके बाहुल्यसे उस वस्तुकों पा सी सकता है; जिरो उसने बड़े
आडम्बरकें साथ सफलता नाम दे रखा है । पर्न मनुष्यक्री चरिताधेता
' प्रेममें है, मैन्रीमें है, त्यागर्से है, अपनेकों सबके मंगलके लिए निःशेष भाव-
से दे देनेमें है। नाखूनोंका बढ़ना मजुष्यकी उस जन्ध सददजात वृत्तिका
परिणाम जो उरक जीवनम ` सपाटता ठे आना चाहती ६, उसको
काट देना उस 'स्व-निर्धारित आत्म-बन्धनका फल है, जो उसे, चरि-
तार्थताकी ओर छे जाती है | । र
कथख्त नाखृ बढ़ते हैं तो बढ़े, मन॒प्य उन्हें बढ़ने नहीं देगाः।
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