साँझ का सूरज | Sanjh Ka Suraj

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Sanjh Ka Suraj by ओम प्रकाश शर्मा - Om Prakash Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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£ भी श्राजकल्न दिल्ली में हैं, जरा सू'घों ता १? “आग तो नहीं पी है, क्‍या सूतं १: & हवा मैं भाभी की गंध, ओर वतादगों कि अभी दिल्ली शनम -कोस हे 2१) एक हाथ उठाकर हवलदार हनीफ ने अगड़ाई ली--“'भागमी व हृद मक्का-मदीना हो गया । रात की उसके नशे में कहीं दमरी दिशा में तो नहीं मुट्‌ गया था 1 -- ऽऽऽ, पढ़े हुओं को मत पढ़ाओ्ो मैया | श्राधी रत को ग्रत पदीं थीं और श्र खोली हैं, ऊपर से ये वुर्य मी दम पर ही रहा कि हम भाभी 'के नशे मैं थे। वैसे सत्र जानते हैं कि जवान आदमी को घोड़े की पीठ पर नींद नहीं आया करती | इनीफ हृवलदार की काया यहाँ थी, और मन दिल्ली में था | मूरल समके कि हृवलदारजी सो रहे हैं, पर हृमारे-जैसे शुणी श्रादमी जानते हैं कि मैया अपनी उनके ध्यात में मान थे |? एक बारगी दोनों ही खिलखिलाकर हँस दिये | प्रसन्‍न हृदय हो विक्रम ने गुनशुनाना आरम्भ कर दिया। छोदटे-से कऋफिले का नेतृत्व अब तो हनीफ को सौंप चुका था। कुछ देर बाद गुन शुनाहृट मे बाकायदा गाते का रूप ले लिया | विक्रम छँचे स्वर में प्रभाती गा रहा था ३ -- > जागो भाई, रात रही थोरी। विक्रम के स्वर में माधुर्य 'था। गाने का ढंग सुधड़ था, प्रतीत होता -था मानो इस युवफ ने सैनिक शिक्षा से अ्रधिक संगीत का अभ्यास किया है । उसके हाथ स्पयें के उतार-चढ़ाव के साथ नाच रहे थे। घोद्ा मो मानों संगीत का रस ले रहा था। विक्रम के हाथ संगीत की सेवा में थे, फलस्वरूप चौड़े की लगाम ढीली पड़ी थी। नियंत्रण व रहने के कारण घोड़े की चाल मन्द पड़ गई थी और शेष चारों घोड़े उससे झ्रागे मिकल गये थे | किन्तु रुका बह तब লী नहीं थां, पीठ पर बैठे सवार के प्रति कर्तव्य का पालन




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