जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व | Jain Darshan Ke Maulik Tatva

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Jain Darshan Ke Maulik Tatva by मुनि नथमल - Muni Nathmal

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मुनि नथमल जी का जन्म राजस्थान के झुंझुनूं जिले के टमकोर ग्राम में 1920 में हुआ उन्होने 1930 में अपनी 10वर्ष की अल्प आयु में उस समय के तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य कालुराम जी के कर कमलो से जैन भागवत दिक्षा ग्रहण की,उन्होने अणुव्रत,प्रेक्षाध्यान,जिवन विज्ञान आदि विषयों पर साहित्य का सर्जन किया।तेरापंथ घर्म संघ के नवमाचार्य आचार्य तुलसी के अंतरग सहयोगी के रुप में रहे एंव 1995 में उन्होने दशमाचार्य के रुप में सेवाएं दी,वे प्राकृत,संस्कृत आदि भाषाओं के पंडित के रुप में व उच्च कोटी के दार्शनिक के रुप में ख्याति अर्जित की।उनका स्वर्गवास 9 मई 2010 को राजस्थान के सरदारशहर कस्बे में हुआ।

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२} जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व आज हम अवसर्पिणी के पांचवें परब--दुःषमा में जी रहे हैं । हमारे युग का जीवन-क्रम एकान्त-सुषमा से शुरू होता है। उस समय भूमि स्लिग्ध थी। बे, गनन्‍्ध, रस और स्पर्श अत्यन्त मनोश थे | मिट्टी का मिठास श्राज की चीनी से अनन्त-गुणा अधिक था। कर्म-भूमि थी किन्तु अभी कमं-युग का प्रवर्तन नहीं हुआ था | पदार्थ अति ख्तिर्ख थे, इसलिए उस जमाने के लोग तीन दिन से थोड़ी-सी वनस्पति खाते और तृ्॒॑त हो जाते। खाद्य पदार्थ अप्राकृतिक नहीं थे | विकार बहुत कम थे, इसलिए उनका जीवन-काल बहुत लम्बा होता था | वे तीन पल्य तक जीते थे। अकाल मृत्यु कभी नहीं होती थी। वातावरण को अलन्‍्त अनुकूलता थी। उनका शरीर तीन कोस ऊँचा होता था। वे खभाष से शान्त और सन्तुष्य होतेथे) यह चार कोड सागर का एकान्त सुखमय क्राल-विमाग वीत गया | तीन कोड़ाकोड़ सागर का दूसरा सुखमय भाग शुरू हुआ | इसमें भोजन दो दिन से होने लगा। जीवन-काल दो पल्य का हों गया और शरीर की ऊँचाई दो कोस की रह गई | इनकी कमी का कारण था भूमि ओर पदार्थों की रलग्धता की कमी | काल और आगे बढ़ा | तीसरे सुख-दुखमय काल-विभाग में और कमी आ गई | एक दिन से भोजन होने लगा। जीवन का काल-मान एक पल्य हो गया और शरीर की ऊँचाई एक कोस की हो गई। इस युग की काल-मर्यादा थी एक कोड़ाकोड़ सागर | इसके अन्तिम चरण म॑ पदार्थों की स्लिग्धता में बहुत कमी हुईं। सहज नियमन टूटने लगे, तब कृत्रिम व्यवस्था आई और इसी दौरान में कुलकर-व्यवस्था को जन्म मिला | यह कर्म-युग के शैेशव-काल की कहानी है। समाज संगठन अभी हुआ नहीं था। योगलिक व्यवस्था चल रही थी, एक जोड़ा ही सब कुछ होता था | न कुल था, न वर्ग और न जाति | समाज और राज्य की वात बहुत दूर थी | जन-संख्या कम थी | माता-पिता की मीत से दो या तीन मास पहले एक युगल जन्म लेता, वही दम्पति होता | विबाह-संस्था का उदय नहों हुआ था| जीवन की आवश्यकताएं, बहुत सीमित थीं। न खेती होती थी, न कपड़ा बनता था और न मकान बनते ये, उनके मोजन, वस्त्र श्रौर निवास के साधन कल्प- वृत्त थे, शगार और आमौद-प्रमोद, विद्या, कला और विज्ञान का कोई नाम




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