राजस्थान के जैन संत | Rajasthan Ke Jain Sant
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
324
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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से नष्ट नही होते तौ पता नही ्राज कितनी श्रधिक सख्या मे न मडारोमे प्रय
उपलब्ध होते । फिर भी जो कुछ भवशिष्ट हैवे ही दन सन्तोकौ साहित्यिक निष्ठा
को प्रदशित करने के लिये पर्याप्त हैं ।
प्रस्तुत पुस्तक मे राजस्थान की भूमि को सम्बतू १४५० से १७५० पक
पावन करने वा सन्तो का परिचय दिया मया है \ लेकिन इस प्रदेश मे तो प्राचीन-
तभ काल से ही सन्त होते रहे हैं जिन्होने अपनी सेवाओ द्वारा इस प्रदेश की जनता
को जाग्रत क्रिया {डा ज्योतिप्रसाद जी, कै ग्रनुसार “दिगम्बराम्नाय सम्मत
षट् खदगमादि मूख श्रागमो की सवं प्रसिद्ध एव सर्वाधिक मरहत्वपूणं धवल, जयघवलः
महाघवकल नाम की विशाल टीकामो के रचयिता प्रातः स्मरणीय स्वामी वीरसेन को
जन्म देने का सौभाग्य भी राजस्थान कौ भूमिको ही प्राप्तहि। येश्राचायं प्रवर
श्री वीरसेन भट्टारक की सम्मानित पदवी के घारक थे । इन्ध्रनन्दि कृत श्रृतावतार
से पता चलता है कि श्रागम सिद्धान्त के तत्वज्ञ श्री एलाचाय चित्रकूट ( चित्तौड )
मे विराजते थे बौर उन्दीके चरणो के सानिध्य इन्होने सिद्धात्तादि का भ्रष्ययन
कियाथा॥ ঃ) ।
(जम्बूदीपपण्शत्ति के रचपथिता आ० पद्मनन्दि राजस्थानी सन्त थे। प्रज्ञप्ति
में २३९८ प्राकृत गाथाओं मे तीन लोको का वर्णन किया गया है। प्रज्ञप्ति की
रचना बारा (कोटा) नगरमे हुई थी । इसका रचनाकाल सवत् ८०५ है \ उन
दिनो मेवाड पर राजा शक्ति या सत्ति का शासन था और वारा, नगर मेवाडके
अधीन था। ग्र थकार ने अपने आपको वीरनन्दि का प्रशिष्य एव बलनन्दि के शिष्य
लिखा है । १० वी शताब्दी मे होने वाले “हरिभद्र सूरि राजस्थान के दूसरे ভক্ত
थे जो प्राकृत एवं सस्कृत मापा के जबरदस्त विद्वानु ये । इनका सम्बन्ध चित्तौड
से था) मागम प्रथो पर इनका 'पूर्णा भ्रघिकार था । ' इन्होंने प्रनुयोगद्वार सूत्र, आव-
श्यक् सूत्र, दशवैकालिक सूत्र, नन्दीसूत्र, प्रज्ञापना सूत्र मादि आगम ग्र थो पर सस्कृत
में विस्तृत टीकाए लिखी भौर उनके स्वाध्याय में वृद्धि की। न्याय ज्ञास्त्र के ये
प्रकाण्ड विद्वात् थे इसी लिये इन्होने श्रनेकान्त जयपताका, अनेकान्तवादप्रवेश जैसे
दार्शमिक ग्र थों की रचना की ! समराइच्चकह्ा प्राकृत मापा को सुन्दर कथाकृति
है जो इन्ही के द्वारा गद्य पद्य दोनो मे लिखी हुई है। इसमे ९ प्रकरण हैं जिनमें
परस्पर विसौधी दो पुरषो के साय साथ चलने वाते & जन्मान्तसो का वंन किया
गया है ! इसका प्राकृतिक वणन एव भापा चित्रण दोनो हो सुन्दर है | धृर्ताख्यात भी
इनकी अच्छी, रचना है। हरिमद्र के 'योगविन्दु” एवं योगहष्टि' समुच्चय भी
दर्शन शास्त्र की, अच्छी रचनार्ये मानी जाती ह 1)
को
१ देखिये चीरबाणी का राजस्थान जन साहित्य सेवी विशेषाक पृष्ठ -स० &
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