तीर्थंकर वर्द्धमान | Tirthnkar Varddhman

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Tirthnkar Varddhman by श्रीचंद रामपुरिया - Srichand Rampuria

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| ङ | ग्रसामान्य धेयं, कष्ट-सहिष्णृता एवं आत्म-संयमके कारण ही वह वद्धंमानसे महावीर वने । तेरहवें वर्षमें उनकी तपश्चर्या पूर्ण हुई और वह केवलीः पदको प्राप्त हुए | संसारके सुख-दुःख, मोह-माया, राग-द्वेप भादिसे वह ऊपर उठ गये। तीका बर्थ होता है, जिसके द्वारा त्तिरा जा सके औौर चूंकि महावीरने अपनी वाणी द्वारा भवसागरकों पार करनेका मार्ग प्रशस्त किया, इसलिए वह त्ीथंकर कहलाये । केवली पद प्राप्त कर लेनेके वाद उन्होंने धर्मोपदेश देवा आरम्भ किया । उनके भनुयायियोंमें स्त्री-पुरुष सब थे। जो पूर्ण व्रती थे बे श्रमण' बीर जो स्थूल ब्रती थे वे उपासक व श्रावक कहलाये | श्रमण, श्रमणी, उपासक, उपासिका--यह चतुविध अनुयायी-समुदाय संघ कहुलाया । भगवान महावीरकी दृष्टि सम्पूर्णतः बराध्यात्मिक थी | आध्यात्मिक साधना द्वारा आत्म-विजय करनेका अभिलाषी कोई भी व्यक्ति सामथूर्यानृत्तार त्रत ग्रहण केर संघका्गंगौ हो सक्ताथा। संघकी नींव ८ तत्त्वों पर आधारित थी :---( १) आत्म-जय, (२) अहिसा, (३) त्रत, (४) विनय, (५) शीर, (६) मत्री, (७) समभाव और (८) प्रमोद | जो पूर्ण ब्रती थे वे किसी भी सवारोका उपयोग नहीं कर सकते थे, वे पैदल चलते थे । पैरोंमें जूते नहीं पहन सकते थे और न खाट भादि बारामके उपकरण ही काममें ला सकते थे । सादा और स्वावलम्बी जीवनका उनके लिए विधान था। वे वाणिज्य-व्यापार भी नडीं कर सकते थे और अपना जोवन-यापन उन्हें भिक्षा मांग क्र करना पड़ता था। । महावार ७२ वर्षक्री आयू तक जीवित रहे ! श्रनन्तर राजगृहमें शरीर त्याग मोक्षको प्राप्त हुए ।




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