उत्तरज्झयाणाणि - भाग 2 | Uttarajjhayanani Part Ii

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Uttarajjhayanani Part Ii by आचार्य तुलसी - Acharya Tulsiमुनि नथमल - Muni Nathmal

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आचार्य तुलसी - Acharya Tulsi

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मुनि नथमल - Muni Nathmal

मुनि नथमल जी का जन्म राजस्थान के झुंझुनूं जिले के टमकोर ग्राम में 1920 में हुआ उन्होने 1930 में अपनी 10वर्ष की अल्प आयु में उस समय के तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य कालुराम जी के कर कमलो से जैन भागवत दिक्षा ग्रहण की,उन्होने अणुव्रत,प्रेक्षाध्यान,जिवन विज्ञान आदि विषयों पर साहित्य का सर्जन किया।तेरापंथ घर्म संघ के नवमाचार्य आचार्य तुलसी के अंतरग सहयोगी के रुप में रहे एंव 1995 में उन्होने दशमाचार्य के रुप में सेवाएं दी,वे प्राकृत,संस्कृत आदि भाषाओं के पंडित के रुप में व उच्च कोटी के दार्शनिक के रुप में ख्याति अर्जित की।उनका स्वर्गवास 9 मई 2010 को राजस्थान के सरदारशहर कस्बे में हुआ।

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उत्तरज्कयर्ण (उत्तराध्ययन) < अध्ययन १ : रोक २०.२५.२६ इलोक २० १७-समीप रहे ( उवचद्रं च ) : चर्णिकार ने इसका अर्थं पास में बैठना” किया है ।* टीकाओं में इसका अर्थ है--'मैं आपका अभिवादन करता हू एसा कहता हुआ सविनय गुरु के पास चला जाय ।* इलोक २५ १८-दोनों के प्रयोजन कै किए. अथवा अकारण ही ( उभयस्सन्तरेण ष } : टीकाओ में इसका अर्य है--दोनों के प्रयोजन के लिए अथवा प्रयोजन के बिता 1१ चार्णि में इसका अर्थ दो या बहुत व्यक्तियों के बीच में बोलना--किया है ।४ इलोक २६ १९-( समरेखु अगारेसु क सन्धीसु ल ) : 'समरेसु--चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ॑^लोहार की शाला है ।५ शान्त्याचा्यं इसका अर्थं नाई की दुकान, लोहार कौ शाला मौर अन्य नीच-स्यान करते हँ । उन्होने समर का दूसरा अर्थ युद्ध भी किया है ।६ नेमिचद्ध के अनुसार इसका अर्थ नाई की दुकान है ।* सर मोनियर विलियम्स ने समर का थर्थ समूह का एकत्रित होना' किया है ।< यह भी अर्थ प्रकरण की दृष्टि से ग्राह्म हो सकता है । समर का सस्कृत स्प स्मर भी होता है । इसका अर्थ है कामदेव सम्बन्धी या कामदेव का मदिर ।* अनुवाद में हमने यही अर्थ किया है। इस शब्द के द्वारा सन्देहास्पद स्थान का ग्रहण इष्ट हि । १-उत्तराध्ययन चूणि, पृ० ३५ उपेत्य तिष्ठेत वा चिदा । २-(क) बृहद वृत्ति, पत्र ५५ 'उपतिष्ठेत' मस्तकेनाभिवन्द इत्यादि चदन्‌ सविनयमुपसरपपेत्‌ । (ख) सुखबोघा, पत्र ८ । ३-(क) बृहद वर्ति, पत्र ५७ “उमयस्स' त्ति आतमन परस्य च, प्रयोजनमिति गम्यते भतरेण व' त्ति विना वा प्रयोजन मित्युपरकार । (ख) सुखवोधा, पत्र १० । ४-उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० ३६,३७ । ५-उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० ३७ समर नाम जत्य हेट्टा लोहयारा कम्म करेति । ३-वृहद्‌ वत्ति, पत्र ५७ समरेषु लरकुटीपु उपलक्षणत्वादस्यान्येव्वपि नीचास्पदेषु अथवा सममरिभि्वतन्त इति समस । ७-सुखवोधा, पत्र १० समरेषु-खरकुटीपु । प-15िभाएपवान्या प्रा णा 1लाणात9 , 1170 दिशाबाब--९णा॥ए (00611677 016010115) 00110080750 ৫07009006, ९-(क) पाइअ सहु-महण्णवों, पु० १०८५। (ख) अगविजा सूमिका, पृ ६३ समर-स्मर-गरह या कामदेव गृह ।




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