वैदिक - सन्ध्या | Vaidik Sandhyaa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| १६ | पदार्थं ( उद्रहन्ति ) परताराकाकामदने हैं । जसे भण्डियां मागं दिषलानी है वेसे ही येद्‌ ओर सृष्टि नियम उस आप क्ती महिमा क्रो दिखला रहें हें ২৬) ऑबित्रंदेवान|मुदगादनीकचत्तुमितन्रस्य परुणस्या गे: । श्राप्रा द्रावापथिवी अन्त- रिक्त: सूय्य आत्मा जगतस्तस्थषश्वस्वाहा हे स्वापिन ! यद्यपि संसार के पदाथ आप को दशति है, परन्तु श्राप (चित्रम्‌) अद्भुत स्वरूप है ( देवानाम्‌ ) विद्वानों के हदय मे सदा { उदू भगात्‌ ) प्रांत हो रहे हैं (अनो कम) बल सरूवरूप हैं (वित्रसूय) भक्त सूर्य लोक (वरुणस्थ रे पुरूष व चन्दर, (अग्नेः) ओर अभि, इनसब के (चक्रुः) प्रकाशक है (जगतः) जज्ुम (तस्थुष ओर स्थावर संसार कै आप ( आत्मा. आत्मा अन्तर्यामी रै ( सूये: ) इसी सं आ




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