गीता-प्रबंध | Essays On The Gita

Essays On The Gita by श्री अरविन्द - Shri Arvind

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गीतासे दमारी आवश्यकता ओर माँग हम छोगोंकी प्रवृत्ति ऐसी डी बनी हुई है कि जिस किसी सद्रथ या सदुपदेशका हम लोग आदर करते हैं उसीको सर्वोगसे स्वेथा ब्रह्म- वावय मानते ओर सिर आँखों उठा छेते हैं तथा इसी रूपमें उसे दूसरों- पर भी जबदैस्ती खाद्‌ देनी चाहते हैं इस आग्रहके साथ कि यह सारा-का-सारा ही इसी रूपमें स्वतःप्रमाण सनातन सत्य है, इसका एक रंच, रेख या स्वर भी इधर-से-उधर नहीं हो सकता, क्योंकि ये सभी उसी एक अपरिमेय प्रेरणाके ही अंश हैं । इसलिये, वेद्‌, उपनिषत्‌ अथवा गीता जेते भ्राचीन सदुम्रथका विचार करनेमे प्रवृत्त होते हुए. आरभे ही यह बतला ইলা बहुत अच्छा होगा कि हम छिस विशिष्ट भावसे इस काथमे प्रवृत्त ह्ो रहे हैं भोर हमारी समश्चमें इससे मानवजाति तथा उसकी भावी सन्ततिका क्या वास्तविक राम होगा । सव्रसे पहली बात यह है कि हम निश्चय ही उस परम सत्यको दढ रंहे है जो एक है ओर सनातन है जिससे अन्य सब सत्य उद्‌ भूत होते दै, जिसके प्रकाशमें ही अन्य सब सत्य परम ज्ञानकी योजनामें अपने-अपने स्थानपर स्थित, निरूपित और झसबदध दिखायी देते हैं। परन्तु इसी कारणसे वह परम सत्य किसी एक पेने सूत्रके अंदर आबद्ध होकर नहीं रह सकता अर्थात्‌ यह संभव नहीं है कि बह परम सत्य सवोशमें या सर्वाथके साथ किसी एक दरशनशार्त्र या किसी एक सद्गंथमें प्राप्त हो जाय, न यही संभव है कि किसी एक गुरु, मनीषी, पेगम्बर या अवतारके मुखसे वह सदाके लिये सर्वाशसे उक्त हुआ हो । ओर यदि उस परम सत्यके विषयमें हमारी कल्पना या भावना कुछ ऐसी हो कि जिससे अपनेसे इतर संप्रदायों के आधार- भूत सत्योक्ते प्रति असहिष्णु होकर हमें उनका बहिष्कार करना पडता हो तो यह समझना चाहिये कि हमें उस परम सत्यका पूरा पता चला ही ५4




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