पदमावत | Padamaavat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“च्छे “च प्राक्रथन सम्पूर्ण पाठ उसी प्रकार की सुनिश्चित लिपि में दिया गया है जो जायसी के इस छोटे पर सुन्दर ग्रन्थ के पुनः सम्पादन में सहायक हं।गा । “इन प्रतियों का अध्ययन पाठ की दृष्टि से करने पर एक तथ्य घिदित होता है । वह यह हे कि जायसी के कुछ समय बाद ही उनकी कछ्लिष्ट भाषा और गूढ़ अर्थों के कारण छोगों को परेशानी होने लगी थी । उससे बचने के लिये मूल शब्दों में फेरफार करके उनकी जगह सरल शब्द रखने की प्रतृत्ि शुरू हो गईं। प्राचीन पाठों में परिवतन करने का प्रायः यह प्रभ्ुख कारण माना जाता है । कठिन शब्द या वाक्य का अथ न समझने के कारण उसे हटा कर उसकी जगह कोई सरल पाठ रख देने का प्रलोभन संस्कृत, प्राकृत, अपश्च आदि प्राचीन भाषाओं में सवंन्न मिलता हे । पदमावत में तौ यह एक नियम सा बन गया था कि जहाँ कहीं मूल अर्थों के समझने में कठिनाई प्राप्त हुई वहाँ पाठ अवश्य बदुल दिया गया। क्लिष्ट पाठ और सरल पाठ की जिन्हें हम मूल पाठ और पाठान्तर कह सकते हैं, दो! परंपराएँ जायसी के पदमावत में स्पष्ट देखी जाती हैं। श॒ुकू जी द्वारा निर्धारित पाठ सरल पाठ की परंपरा का अनुगामी है और गुप्त जी द्वारा मृहीत पद्मावत का पाठ क्लिष्ट पाठ या कवि के লূত पाठ के निकटतम है। फिर भी कुछ स्थानों में जिनका टिप्पणी में निर्देश कर दिया गया है, मुझे गुप्तजी के पाठ से भिन्न पाठ मूल में स्वीकार करना पड़ा है। उदाहरण के लिये ३२३।७ पंक्ति का पाड गुप्रजी के संस्करण में यह है- चंदन चोंप पवन अस पीऊ । भइड चित्र सम कस भा जीऊ ॥ शुक्ल जी में यही पाठ है। केवल “चाप! की जगह “चोच” है। बिहारशरीफ और रामपुर की नवीन प्रतियों में भी यही पाठ है जो गुप्त जी ने दिया है। इसका अथ शिरेफ ने जो सवत्र शुक्लजी के पाठ का अनुगमन करते हं इस प्रकार किया है-- ४( सखियाँ कहती हैं ) तुम्हारा प्रियतम चंदन से सुगंधित पवन के समानदहै। तम मूति- सो हो गई हो। तुम्हारे जी को क्या हुआ है ।' वस्तुतः इस पाठ और अथ से कवि के मूल आशय का तनिक भी बोध नहीं होता | चंदन से सुगंधित पवन से पति की उपमा देने की विशेष संगति नहीं बठती । जायसी का मुल पाट चिन्रसम न होकर चतुरसम था । फारसी लिपि में दोनों शब्द एक जैसे लिख जाते हैं। चतुर सम अप्रचलित शब्द था। इसीलिये उसे समझने में कठिनाई हुईं होगी | कवि का मूल पाठ और अथ इस प्रकार था-- ' चंदन चोॉप पवन अस पीऊ । মহত चतुरसम कस भा जीऊ ॥ सुहागरात के अगले दिन प्रातःकाल पद्मावती की सखियाँ उसे घेर कर पूछठती हैं--“'सत्री रूपी चंदन की चप या स्वल्प रस को भी यति पा जाय तो उसे लेने के लिये वह पवन के समान दौडता है। पद्मिनी होने के कारण तुम तो साक्षात्‌ चतुरसम सुगंधि थीं। तुम्हारे साथ पति ने মান किया होगा ? बताओ तुम पर क्‍या बाीती ? तुम्हारा कैसा जी है ? स्पष्ट है कि कवि की अर्थ व्यंजना बहुत ही ऊँचे धरातल पर थी। जायसी ने अपनी संक्षिप्त शली के अनुसार यहाँ केवल “वंदन चोप शब्द्‌ रखा है। 'खरी-रूपी चंदन-रस” यह ऊहा पाठक को स्वयं करनी पड़ती है | इसीसे मिलती हुईं पंक्ति ४७१६।२ है--+ मारुति नारि भँवर अस पीऊ । कहें तोहि बास रहे थिर जीऊ ॥ अर्थात्‌ मालती-रूपी स्लरी का रस-पात करने के लिये प्रियतम भौंरे के समान होता है । तुझमें वह बास कहाँ जिससे उसका मन स्थिर हो ¢ “मार्ति नारि' में जो बात स्पष्ट हे उसे “वंदन चोंप”' उपमान देकर केवल ध्वनि से कवि ने व्यक्त किया है। चतुरसमः हिंदी साहित्य का विशिष्ट शब्द था जो पदमावत में, रामचरितुमानस में और विद्यापति की कीतिलता में भी प्रयुक्त हुआ है ( दे० 12৩ २७६।४ ) ॥ दूसरा महर्वपू्ण शब्द 'दंगव” है जिसे गप्र जीने एक बार জান ৫২৪1২). ढो बार 'दिन




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