हमारा कलंक | Hamara Kalank

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ५] अपविन्न मानते हैं, उन्हें बनाया किसने ? क्‍या इनके लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैय आदि उच्च कहे जाने वालो वं के लोग मजदूर बन कर काम करने आये थे ? इन अछतों के परिश्रम से ही तो ये सब बने हं? तब जिन वस्तुओं को उन्होंने स्वयं बनाया, बन छकने पर, उनके छूने से वे पवित्र कैंसे हो जायगी ? सारांश जहाँ तक बुद्धि, युक्ति एवं तक का सम्बन्ध है अस्प्श्यता अथवा अछुृतपन का धमे से कोद सम्बन्ध नहीं । ओर इसलिए हमें चाहिए कि हमारे मन में अभी तक जो श्रम घुसा हभ है, उसे अब एकदम दूर करके अपने सदियों से अछूग किये हुए अछूत भाइयों को गहे लगादें । इसका यह अथ नहों है कि हम उनके साथ एक दम खान-पान अथवा विवाह-शादी का व्यवहार आरग्भ कर दे | यद धात तो आज ऊँची जाति के कहाने वाले हिन्दुओं में भी नहीं है। महात्माजी ने कभी इस धात पर ज़ोर नहीं दिया। यह तो भापके' मन मानने को बात है । महात्माजी जो कुछ चाहते हैं, ओर इस समय जो सबसे अधिक आंव- इयक है, वह तो केवल इतना ही है कि आप उन्हें छूने तक में जो घृणा मानते हैं. उन्हें मन्दिरों में नहीं आने देते, अपने कुओं से पानी नहीं भरने देते, अपने स्कूल-पाठशालाओं में उनके बालकों को नहीं पढ़ने देते; उनके रोग-शोक में उनकी औषधि एवं सेवा छुश्नषा का सह्दारा नहीं देते, ये सब बातें, ये सब प्रतिबन्ध दुर कर दीजिए | उन्हें अपना भाई मानिषु, उनके लिए अपने मन्दिरों के दरवाज़े खोल दीजिए कुश्रों पर पानी भरने: और स्कूल-पाठशालाओं में उनके बालकों के पढ़ने की व्यवस्था कर दीजिए, रोग-शोक के अचसर पर उनके लिए औषधि भादि का उचित प्रबन्ध भोर सब सार्वजनिक स्थानों के उफ्योग की उन्हें स्वतंत्रता दीजिए।. घस यही उनकी मांग है। आप डनके मेलेपन की शिकायत कर सकते' हैं। किन्तु इसमें भी मुख्य दोष हमारा ही है । हम उनसे काम तो इतना: गन्दा लेते हैं, ओर मज़दुरी इतनी कम देते हैं कि उसमें डनका पेट भरः




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