ग्रह का फेर | Grah Ka Pher
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
28 MB
कुल पष्ठ :
112
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पांदरी के आध्रभ में पु १३
इन्दु बेहोश द्यो गई । शरत की रौद्र तपिता केतकी कलिका
क्ये भांति हतमाभिनी भूमि पर भिर पड़ी |
म २६
जिस समय इन्दु के हश हुआ उस समय उसने अपने का
एक निजेन प्रकोष्ठ में एक खुसजित पलंग के ऊपर खोये पाया।
निकट ही एक बृद्धा पादरी-रमणी उसके लिये भोजन बना रही
थी । पास हो एक छोटे से टेबुल पर रोगी की दवा और पथ्य
रखे थे। और कोई कहीं नहीं था | सहसा इन्दु ने उठने की चेष्ठा
को, किन्तु दुद्धा रमणी ने बीच ही में रोक कर कदा--“डरे मत,
निश्चिन्त हो कर सो जाओ। अब भी तुस्हे' ज्वर बना हुआ है
चंचल होने से रोग बढ़ जायगा।” इन्दु का शरीर चनव सन्न हो
गया था,--कुछ न बोल कर उसने चुपचाप आखे सूद लीं।
इन्दुका चिट्ठी देने के कुछ कुछ देश बाद बुढ़िया ने आकर
देखा कि बालिका बेहेश पड़ी हुई है । उसने बहुत चेष्टा की पर
इन्डु के होश नहीं हुआ। आधी रात के जाड़ा देकर उसे और .__
भी अधिक बुखार हा श्राया | बुढ़िया ने हत-बुद्धि होकर
रात इन्दु के पास ही बेठ कर काटी ।
सुदूर पर्चतजटंग की अन्तरालख से प्रथम कुहर के साथ
हो साथ भधरभात समीरण ने आकर बुढ़िया के उष्णु मस्तक का
रुपश किया। बुढ़िया ने जंगले के क्षिद्री द्वारा देखा कि पूर्व गगन
में बाल-भाजु का प्रथम राग संचार हुआ है। और राज-पथ पर दो
एकः नागरिक व्यस्त भाव से गमनागमन कर रहे हैं। बिना देर
किये बह घर से बाहर आयी | वह जानती था कि पाद्रियों का
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