प्रियप्रवास | Priypravas

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Priypravas by अयोध्यासिंह उपाध्याय - Ayodhyasingh Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ ) स्वाद अन्य प्रान्तवालों को भी चखाना है तो उन्हें संस्कृत के मन्दा- क्रान्ता, शिखरिणी, मालिनी, प्रथ्वी,वसंततिलका, शादूलविक्रीड़ित आदि ललित बृत्तों से अलंक्रत करना चाहिये। भारत के भिन्न-मिन्न प्रान्तों के निवासी विद्वान संस्कृत-भाषा के बृत्तों से अधिक परिचित हैं, इसका कारण यही है कि संस्कृत भारतवष की पूज्य ओर प्राचीन भाषा है ॥ भाषा का गोरव बढ़ाने के लिये काव्य में अनेक प्रकार के ललित वृत्तों ओर नूतन छनन्‍्दों का भी समावेश होना चाहिये ।” साहित्यममंज्ञ, सहृदयवर, समांदरणीय श्रीयुत पण्डित मन्नन हिवेदी 'सम्बत्‌ १९७० में प्रकारित 'मयोदा' की ज्येष्ट, आषाढ़ की मिलित संख्या के प्रष्ठ ९६ मे छिखते है :- ` ““यहोँ एक चात बतला देना बहुत जरूरी है । जो बेतुकान्त कीं कविता लिखे, उसको चाहिये कि संस्कृत के छन्दो को काम में छाये । मेरा ख्याल है कि हिन्दी पिगल के छन्दों में बेतुकान्त कविता अच्छी नहीं लगती । स्वर्गीय साहित्याचाय्य पं० अम्बिकादत्त जी व्यास ऐसे विद्वान भी हिन्दी-छन्दों म अच्छी बेतुकान्त कविता नहीं कर सके। कहना नहीं _ होगा कि व्यास जी का कस-वध' काव्य बिल्कुल रददी हुआ है ।” अब रही यह बात कि संस्कृत-छन्दों का प्रयोग में उपयुक्त रीति से कर सका हूँ या नहीं, ओर उनके लिखने में मुझको यथोचिंत सफलता हुई है या नहीं । मैं इस विषय में कुछ लिखना नहीं चाहता, इसका विचार भाषा-मम्मज्ञों के हाथ है। हाँ, यह अवश्य कहूँगा कि आदय उद्योग में असफल होने की ही अधिक आशंका हे | भाषा-शैली “प्रियप्रवास' की भाषा संस्क्ृत-गर्भित है। उससें हिन्दी के स्थान पर -संस्फृत का रङ्ग अधिक है । अनेक विद्वान्‌ सज्नन इससे रट होगे,




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