तर्कभाषा | Tarkbhasha
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22 MB
कुल पष्ठ :
467
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about मोतीलाल बनारसीदास - Motilal Banarsidas
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ २५ ॥
है और दूसरा ओपाधिक ह, क्योकि दोनों बातें सम्भव हँ! यह हो सकता है कि
इन नामों मे वात्स्यायन नाम सांस्कारिक हो तथा लिक्षः नाम न्यावहारिक-पुकारू
हो, और इस प्रकार दोनों नाम प्रमुख हों ।
अथवा यह भी हो सकता है कि गोत्र का निर्देशक होने से वात्स्यायनः नाम
औपाधिक हो और पक्षिल' नाम मुख्य हो, या वात्स्यायनः नाम ही मुख्य हो और
पक्षिक नाम पक्षिणः प्रतिपक्षिणः लाति-आदत्ते-निग्रहस्थाने गृह्णति इस ब्युत्पत्ति से
धविपक्षियों के निम्नहकर्ता' आर्थ में, अथवा पक्षिणः-खगान् लाति-आदत्ते-सस्नेहं
सकृप गृह्णाति इस व्युत्पत्ति से पक्षी पर्यन्त प्राणियों के प्रति कृपालु-स्नेही' अर्थ में
ओऔपाधिक हो । पर जब मुझे अपनी समझ की बात कहनी होगी तो में यही कहना
चाहूँगा कि इन दोनों नामों में 'वात्स्यायन नाम ही मुख्य है, वयोकि इस नामका निर्देश
स्वयं माष्यकारने किया है । अततः उस निर्देशकों गोत्र का निर्देश नहीं मानता जा
सकता, क्योंकि यदि उसे गोत्र का निर्देश माना जायगा तो उस गोत्र के भनेकों व्यक्ति
होने के कारण उस निदेश से भाष्यकार का व्यक्तिगत परिचय नहीं होगा। फलूतः
उस निर्देश की कोई उपयोगिता न होगी ।
वाचस्पति मिश्वने जो (पक्षि नामका निर्देश किया है उसे औपाधिक নাম का
निर्देश माता जा सकता है; क्यों कि विनय ओर श्रद्धा के द्योतनार्थ उनके द्वारा मुख्य
नाम का निर्देश न होकर औपाधिक नाम का निर्देश होना ही उचित हूँ। भाष्म में
अनेक प्रतिपक्षी मतों का खण्डन है, अतः 'प्रतिपक्षी के निग्रहकर्ता' अर्थ में अथवा पक्षी के
समान जो अल्पन्न हैं उनके हितार्थ न्यायसुत्र”! पर भाधष्यनिर्माण करने की पाके
कारण सर्वभृतकारुणिक' अर्थ में पक्षिलः इस ओपाधिक नाम का निदेश सवंथा उचित
हौ सकता ह ।
वासस्यायन का निवासस्थान-
वात्स्यायन के निवासस्थान के सम्बन्ध में विचार करने पर यह् बात अधिक सगत
प्रतीत होती है कि न्यायसूच्रकार गौतम के समान न्यायभाष्यकार वात्स्यायन को
भौ मिथिखाका ही निवासी माना जाय; क्योकि जब न्यायसूत्र! का निर्माण मिथिला
में हुआ, तब यह स्वाभाविक है कि उसके भाष्य का निर्माण भी मिथिला में
ही हो, क्यों कि मिथिला में बसे न्यायसूत्र कै अध्ययन अघ्यापन, व्याख्यान
और असनुव्याख्यात की सुविधा और सम्भावना उतने सुदृर पूर्वकाल में जितनी
मिथिला में हो सकती थी, उतती मिथिला से दूरवर्ती किसी अन्य प्रदेश में नहीं हो
सकती थी । यदि न्न्यायसूत्र' के निर्माणकार और न्यायभाष्यके निर्माणकाल के
परस्पर विप्रकप॑को देखते हुये यह् सम्भावना भी की जाय करि इतनी लम्बी अवधि में
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