उदात्त भावना : एक विश्लेषण | Udatt Bhawana Ek Vishleshan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
221
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१० उदात्त भावना : एक विश्लेषण
है ।*” धर्म के विरुद्ध जो कुछ है, वह अ्रधम है। जिस प्रकार जीवन को आगे
बढाना और बनाए रखना धमं का श्रटल सिद्धान्त है, उसी प्रकार जीवन को
पीछे ढकेलना और गिरा देता अ्रधर्म (धर्म के श्रभाव) का अटल परिणाम है।*
धर्मांचरण अथवा धर्म के व्यावहारिक पक्ष पर मनु ने इस प्रकार
प्रकाश डाला है--ध्रृति (किसी भी परिस्थिति में न घबराना) क्षमा (अपने
तथा दूसरों के मत की चंचलताओं को यथाथे रूप में देखना), दम (प्रलोभनों
के रहते भी मन की दृढ़ता), अस्तेय (दूसरों জী वस्तुग्रों को अग्राह्म समभना ),
शौच (आम्यन्तरिक और बाह्य पवित्रता), इन्द्रिय संयम, बुद्धि विद्या, सत्य, ्रक्रोध
(क्रोध न करना), ये दश धमं के लक्षण हैँ । 3 भ्राघुनिक मान्य विचारकों के अनुसार
धर्म मानवीय अनुभवों का एक ऐसा तत्त्व है जो सदा ऊध्व॑मुखी रहा है 1
सांख्य भी यही कहता है कि 'धर्मेणोध्वंगमनम्' | इस तरह व्यापक श्रथ में
धमं एक उदात्त धारणा है और धर्म की संस्थापना के हेतु मानव रूप में
प्रवतरित ईश्वर उदात्त का प्रकृष्टतम उदाहरण है । लीला का प्रयोजन लीला
मानने की परिकल्पना अपेक्षाकृत कम महत्त्वपूर्ण हैं। झ्रतएवं लीला काव्यों
की अपेक्षा औदात्य की दृष्टि से चरित-काव्य भ्रधिक महत्त्वपूर्ण है। जीवनानन्द
का पर्याय होने पर लीला भी उत्कर्पक हो जाती है।
धर्म के नाम पर मात्र बाह्याचार, रूढ्िवादिता, सम्प्रदायिकेता श्रादि
संकीर्स वृत्तियाँ लोक संग्रह के विपरीत जाती हैं, अ्रतः उदात्त की परिधि में
नहीं आती । धमं एवं धमं संस्थापक (परमतत्व) की परिकल्पना मे उदार
हृष्टि, उसकी श्रनन्तता एवं श्ननन्त रूपता मे विश्वास, उसकी सिद्धि की विभिन्न
पद्धतियों में ग्रास्था आदि घारणाएं ही धर्म का उदात्त पक्ष हैं ।
(ड) सहामानव
परमतत्त्व या ईश्वर के मानवावतार से थोड़ा सिलती-जुलती महामानव
या लोकोत्तर मानव की परिकल्पना है। बसे तो ईश्वर सभी भृतों* के हदय
१ मिश्र, जनादेन, “भारतीय प्रतीक विद्या, पृष्ठ २०, पटना--१६५६ 1
२ वही०।
३ वही... . पृष्ठ वही
४. शास्त्री, विद्याध्षर, “धर्म” दाशेनिक वरै मासिक, पृष्ठ ४५, नवम्बर १९५६ ।
५ भूते सृष्टि तीन प्रकार की है।***** “१, असंज्ञ--जैसे पापाण आदि ।
२. अन्तःसंज्ञ--जैसे वृक्ष आदि ।
३. स्संज्ञ--जैसे पुरुष, पशु आदि |
अग्रवाल, वासुदेवशरथ--“वेदविद्या' पृष्ठ ७१, आगरा (१६५६ ) 1
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