राजनीतिक विचारों का इतिहास | Rajnitik Vicharon Ka Itihas

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Rajnitik Vicharon Ka Itihas by ज्योतिप्रसाद सूद - Jyoti Prasad Sood

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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राजनीतिक विचार का स्वरूप भू खोग राज्य के तोकपालक रूप की तो भ्रवहेलना करते है किन्तु तोकरक्षक के रुप में उसे श्रपरिहार्य समझते राज्य के कार्यो की पूर्ति का यन्त्र है सरकार | सरकार का सगठन किस प्रकार का होना चाहिए ? सरकार के विभिन्न अंगो, कार्यपालिका, व्यवस्थापिका तथा न्याय पालिका में परस्पर एक दूसरे से क्या सम्बन्ध होना चाहिए ? सरकार की शक्ति केन्द्री- भूत होनी चाहिए या उसे विकेन्द्रित कर देना चाहिए ? इत्यादि-इत्यादि प्रश्न सरकार के ढाचे के विषय में उठते है । भ्राज ये प्रदन पहिसे की अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो उठे है । राज्य की ध्येय पूर्ति तथा उसके कार्यपालन के लिए एक अन्य अ्निवायें सस्थान है कानून (1.8७) । इसके विपय में भी विभिन्न प्रश्न उठते हैं । कानन का स्वभाव क्या है? क्या यह्‌ विशुद्ध शौर निप वुद्धि की अ्भिव्यंजना है या झासक की इच्छा की उद्धौपगा या जनता कौ सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति ? कानून, वनानेका अधिकार किसे है ? राजसत्ता वया है और उसका ख्रीत कहा है ? कानून, स्वतन्त्रता तथा व्यव्ति में क्या सम्बन्ध है ? इस प्रकार कानून, राज्य तथा नागरिको के अधिकार से उसके सम्बन्ध की विवेचना करने जब हम बैठते है तो बहुत सी सारपुर्णा धारणायें ` उत्पन्न होती है। कानून के निकट और उससे सम्बद्ध विषय है नागरिकता के भ्रधिकार एवं कर्तव्य । नागरिकता के अधिकार क्या हैं ? उन्हें सुरक्षित रखने का सर्वश्रेष्ठ साधन कया है ? ्रधिकार, स्वतन्त्रता, समानता, नागरिकता, सावं -मौमिकता तथा कानून प्रपयेक युग औौर प्रत्येक देश में राजनीतिक चितन का विपय रहैहै। राज्य की श्रान्तरिक समस्याओं के अतिरिक्त विभिन्न राज्यों में বর की समस्थायें भी खड़ी होती हैं क्योंकि संसार मे अनेक राज्य है और वे न्यूनार्थिक एक दूसरे के सम्पर्क में आते हैं ? इसी से ये भ्रइन उठते है कि उनमे उचित सम्बन्ध क्या होना चाहिए ? उचित सम्बन्ध का आधार क्‍या है ? राजनीतिक विचार के इतिहास में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध को विनियन्त्रित करने वाला श्रन्तर्राष्ट्रीय कानून कभी-कभी तो अत्यन्त महत्वपूर्ण हो उठता है। आज के युग मे उसका महत्व राजनीतिक धारणां में सबसे अधिक ই। সাল तो मानवत्ता का अस्तित्व ही एक शान्त, स्वस्थ और सहयोग- पूणं श्रन्तर्राष्ट्रीय वातावरण पर निर्भर करता है । यह कुछ उन प्रइनों और समस्याओं के नमूने है जो समय-समय पर एक राज- नीतिक्रं धिच(रक के सामने उठते रहे है । राजनीतिक चिन्तन के स्वरूप झौर स्वभाव की एक भाको हमें देने के लिए ये पर्याप्त हैं। इस सूची को और लम्बा वनाना व्यर्थ है। इस प्रसंग में हमे एक बात ध्यान मे रखनी चाहिए । वह यह कि यद्यपि ये समस्त प्रश्न राजनीतिक दर्शन की प्रधान समस्‍यायें हैं, किन्तु प्रत्येक विचारक ने इन सव पर विचार नही किया है । सब ले अपनी-अपनी व्यवितयत रुचि तथा परिस्थितियों के श्रसु- सार विश्विप्ट प्रश्तों पर विशिष्ट वन्न दिया है । कभी-कभी तो न केवल व्यक्ति विशेष




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