हर्षवर्द्धन | Harsh Vardhan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
288
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भारत की राजनीतिक अवस्था [ १५
अतिरिक्त संभव है कि गुप्तवश के प्रतिष्ठाता चद्रगप्त प्रथम ने लिच्छवियों की सहायता से
जिस “मगधकुल' के राजा से मगघ देश को जीत लिया था वह मौखरि वश का ही रहा
हो । यह अनुमान हाल में आविष्कृत 'कौमुदीमहोत्सव” नामक नाटक पर अवलंबित है।'
मौखरि नाम के दो विभिन्न राजवश थे। उन की मुख्य शाखा उस प्रदेश पर
शासन करती थी जिसे आजकल संयुक्तप्रांत कहते हैं । बाण के एक कथन से प्रकट होता दै
कि उन की राजधानी शायद कन्नौज में थी? । मुख्य शाखा के अतिरिक्त एक करद वश था
जो गया प्रदेश पर राज करता था। गया के उत्तर-पूर्व १५ मील की दूरी पर स्थित बराबर
आर नागाजंनी पहाड़ियों के गुफा-मदिर के लेखों से हमें इस वंश के तीन नाम ज्ञात हैं--
अनंतवर्मा, उस के पिता शादौलवमां तथा पितामह यज्ञवमां | इन तीनों राजाग्रोका
शासन-काल पॉचवीं शताब्दी निर्धारित किया गया है*। लिपि-प्रमाण के आधार पर वे
छटी शताब्दी के पूवाद्ध के पीछे नहीं हो सकते । इतना स्पष्ट है कि वे गुप्त सम्राटों के
सामत थे। मौखरियो की प्रधान शाखा जो आरम मे गुप्त राजाओं की श्रधीनता स्वीकार
करती थी, अपनी उन्नति कर के उत्तरी भारत की प्रधान शक्ति बन गई। इस वश के
प्रथम तीन मौख्वरि राजाओ के नाम हरिवर्मा, आदित्यवर्मा तथा ईश्वरवर्मा थे | इन तीनों
भे से ईश्वरवर्मा ( ४२४--४५० ६० ) वस्तुतः एक वीर पुरुप धा । सवेप्रथम उसी ने श्रषने
वंश की प्रतिष्ठा बदाई | ज्ञात होता है कि इन प्रारभिक मौखरि राजाओं ने गुप्त-राजाओं
के साथ वैवाहिक सबंध जोड़ा था। प्राचीन भारत मे दो राजवशों के बीच, बिवाह का
सबंध प्रायः राजनीतिक दृष्टिकोण से स्थापित किया जाता था। यूरोप के इतिहास मे भी इस
प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है। गुप्तवश के राजा कुटनीति-विद्या में बढ़े
निपुण होते थे। अवसर पा कर वे ऐसा सबध जोड़ने में कमी चकते नहीं थे। चद्रगुप्त
प्रथम ने लिच्छवियों के साथ जो विवाह-सबंध स्थापित क्रिया था उस का क्या फल हुआ
यह हमे भली भाँति ज्ञात है। चद्र॒गुप्त द्वितीय ने भी अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह,
दक्षिण के मध्य भाग के वाकाटक राजा रुद्रसेन द्वितीय के साथ किया था। बदैलखड
देखिए, एडवार्ड ए पिरेज़्ञ, “दि मौखरिज़'--( १६३४ )--प्रथम परिच्छेद, प्रष्ठ
२९-३९
रमत्तृदारिकापि राज्यश्रीः कान्यकुब्जे कारायां निरिष्ठा--हषंखरित, पृष्ट २९१
°क्रलीर-- कापेस इंसक्रिष्टियोनुम् दंडिकारम्' জিতু ই, लेख न० ४८-९१, पृष्ठ
२२१.२२त
४भगवानलाल इंह्जी और व्यूत़्र--'इंडियन एंटिक्वेरी', जिरद 1१, पृष्ठ ४८८ की
टिप्पणी ।
५कीक्दान --एपिग्राफिश्ा इंडिका', जिलदु ६, पृष्ठ ३
“जौनपुर का लेख जो बहुत अर्पष्ट है, शायद ईशानवर्मा की विजयों का उस्लेख
करता है, जैसे--अंभरपति को “जो बिल्कुल भयभीत हो गए थे! अपने अधीन फरना-- देखिए,
कापस हं सक्रिष्टियोनुम् हं डिष्ारम्' जिद्द् ३, पृष्ट ३३०
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