जैन कथा कहानियां | Jain Katha Kahaniyan

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Jain Katha Kahaniyan by जगदीशचंद्र जैन - Jagdishchandra Jain

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about जगदीशचन्द्र जैन - Jagadish Chandra Jain

Add Infomation AboutJagadish Chandra Jain

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
[ १ % ~ चाहिये कि वह झात्मशुद्धि के लिये तथा दूसरों की धर्म में स्थिर करने के लिये जनपद विहार करे, तथा जनपद-विहार करने वाले साथु को मगध, मालवा, महाराष्ट्र, लाट, कर्णाटक, द्रविड, गौड, विदभं भ्रादि देशौ की लोक-माषाभो. में कुशल होना चाहिये, जिससे वह भिन्न-भिन्न देशों के लोगों को उनकी भाषा में उपदेश दे सके । उसे देश-देश के रीति- रिवाजों का और ग्राचार-विचार का ज्ञान होना चाहिये जिससे उसे लोगों में हास्यमाजन न बनना पड़े (१-१२३६, १२२६-३०, १२३६) । ये श्रमण देश-देशांतर में परिभ्रमण करते हुए लोक-कथाओ्रों द्वारा लोगों को सदाचार का उपदेश देते थे, जिससे कथा-साहित्य की पर्याप्त ग्रभिवृद्धि हुई । (२) जैन साहित्य का प्राचीनतम भाग आगम' के नाम से कहा जाता हैं । ये श्रागम ४६ हं-- १२ भ्रंग --घ्नायारग, सूयगड, ठाणांग, समवा्यांग, भगवती, नायाधम्मकहा, उवासगदसा, अंतगड़दसा, अनुत्तरोववाइयदसा, पण्हवा- गरण, विवागसुय, दिद्विवाय । १२ उपांग :--श्रोवादइय, रायपसेणिय, जीवाभिगम, पल्नवणा, सूरिय- पक्षति, जंबृहीवपन्नति, चन्दपन्नति, निरयावलि, कप्पवङ्सिया, पृण्फिया, पुप्फचूलिया, वण्हिदसा । १० पदन्ना :--चउसरण, आाउरपच्चक्साण, भत्तपरिन्ना, संथर, तंदुलवेयालिय, चन्दविज्कमय, देविदत्थव, गणिविज्जा, 'महापच्चक्खाण, वीरत्थव । ६ छेदसूत्र :--निसीह, महानिसीह, ववहार, झ्राचारदसा, कप्प (बृहत्कल्प ) , पंचकप्प । ४ मूलसूत्र --उत्तरज्फयण, भरावस्सय, दसवेयालिय, पिडनिज्जुत्ति । नन्दि भौर भ्रनुयोग ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now