जैन क्रिया कोष | Jain Kriya Kosh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
224
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अपन किया । १२९
दोहा-- अघ-तरवरको मूल হহ। मोह मिथ्याव ज्ज होय ।
राग दोष कामादिका, ए सर्कघ बहु जाय ॥
अशुभ क्रिया शाखा অলক, অন্ন चंचक भाव |
पज्र असंजम अनञ्नता, छाया नाहिं रूखाब ॥
इद भव दुस्व भाखे पहुप, फछ निगोद नरकादि।
इष्ट अघ-तंरुको रूष है भववन माहि जनादि ॥
चवौपाई--क्रिया कूठार गहे कर कोय, अघतरः बरक काटे सोय ।
जे कैच द्धि भौर ₹ मठा, उदर भरणके कारण शटा ॥
तिनके माङ खेयं जो खाहिं ते नर अपनों जन्म नसां 1
तात मोक्तनो दधि तजौ, यह गुरु आज्ञा हिरदै मजौ ॥
दधी जमाव जा विधि चरली, सो बिधि धारहु भापदहिं जती ।
दूध दुदयाकर ल्यावै जे, तदिन अरानि चढाबे तवै !
रूपौ गरम करे पयमाहि, ज्ञामण উহু ভু অলী লাহি।
जमे दही या विधिकर जोहु बाघे कपरा माद्दी सोहु ॥
बुद रदे नहिं जऊलकी एक, लजहिं सुकाय धरे सुविवेक।
दहीवड़ी इह भाषी सही, गृही जमावे तासो दद्द ॥ १६०
अथवा द्धिमे হই বীজ, कपरा भेय सुकाय घरेय।
राखे इक द दिन ही जादि, बहुत दिना सखे नदि लादि ४
जलम घोरिर जामण देय, दधिरे तौ या विधिकरि खेय ।
ओर भाति लेवौ नदि जोगि, भासने जिनवर देव अरोगि ॥
शीतकालकी इद् विधि कट्दी, उष्णरू बरषा रास्ते नहीं।
जादि सर्वथा ऊ दृधी, तासम मौर न कोई सुधी ४
सूदनते पाचनिको दुः्घ, दधि-घृत-छाछि भरूं ते मुग्ध।
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