जैन क्रिया कोष | Jain Kriya Kosh

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Jain Kriya Kosh  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अपन किया । १२९ दोहा-- अघ-तरवरको मूल হহ। मोह मिथ्याव ज्ज होय । राग दोष कामादिका, ए सर्कघ बहु जाय ॥ अशुभ क्रिया शाखा অলক, অন্ন चंचक भाव | पज्र असंजम अनञ्नता, छाया नाहिं रूखाब ॥ इद भव दुस्व भाखे पहुप, फछ निगोद नरकादि। इष्ट अघ-तंरुको रूष है भववन माहि जनादि ॥ चवौपाई--क्रिया कूठार गहे कर कोय, अघतरः बरक काटे सोय । जे कैच द्धि भौर ₹ मठा, उदर भरणके कारण शटा ॥ तिनके माङ खेयं जो खाहिं ते नर अपनों जन्म नसां 1 तात मोक्तनो दधि तजौ, यह गुरु आज्ञा हिरदै मजौ ॥ दधी जमाव जा विधि चरली, सो बिधि धारहु भापदहिं जती । दूध दुदयाकर ल्यावै जे, तदिन अरानि चढाबे तवै ! रूपौ गरम करे पयमाहि, ज्ञामण উহু ভু অলী লাহি। जमे दही या विधिकर जोहु बाघे कपरा माद्दी सोहु ॥ बुद रदे नहिं जऊलकी एक, लजहिं सुकाय धरे सुविवेक। दहीवड़ी इह भाषी सही, गृही जमावे तासो दद्द ॥ १६० अथवा द्धिमे হই বীজ, कपरा भेय सुकाय घरेय। राखे इक द दिन ही जादि, बहुत दिना सखे नदि लादि ४ जलम घोरिर जामण देय, दधिरे तौ या विधिकरि खेय । ओर भाति लेवौ नदि जोगि, भासने जिनवर देव अरोगि ॥ शीतकालकी इद् विधि कट्दी, उष्णरू बरषा रास्ते नहीं। जादि सर्वथा ऊ दृधी, तासम मौर न कोई सुधी ४ सूदनते पाचनिको दुः्घ, दधि-घृत-छाछि भरूं ते मुग्ध।




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