जैनत्व का बोध | Jainatv Ka Bodh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
303
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जैनत्त का बोश
भगवान का उपदेश है। अत. राग नहीं करो, राग रहित होने के कारण ही वीतराग
विशेषण दिया है, क्योकि जिनेन्द्रदेव सभी रागों से रहित है ।
जिद-मद-हर्ष द्वेषाजित-मोह-परीषहा जित कषायाः।
जित जन्म मरण रोग जित मात्सर्या जयन्तु जिना:।।
जिन्होंने मद, हर्ष, द्वेष, मोह, परिषह, कषाय, जन्म-मरण, रोग तथा ईर्ष्या आदि
विभाव परिणामों को जीत लिया है, वे वीतराग जिनदेव सदा जयवन्त रहे। वीतराग का
अर्थ है-दोष रहितता, क्योंकि दोष, वासना, कामना, आकक्षा से उत्पन्न होते है और
सच्चे देवों ने मोहनीय कर्म का अभाव कर दिया है। इसलिए वे नियम से वीतरागी हो
गये | मोह ही वीतरागता का बाधक है| राग सत्पथ में विघ्न उत्पन्न करता है। जैसे ईंधन
अग्नि को बढाती है उसी प्रकार राग संसार को बढाता है। इसलिए देवत्व का दूसरा
विशेषण वीतरागता है। अर्थात् अन्तरंग और बहिरग परिग्रह से रहित है। वीतरागी
अस्त्र-शरत्र, वरत्र से रहित होते हे । तीसरा विशेषण हे-““हित-उपदेश के दाता“ अर्थात्
सर्वज्ञ देव की दिव्य-ध्वनि भव्य-जीवों कं लिए कल्याणकारी वचन ही उच्चारित करती
ই | क्लेशोत्पादक नहीं होती हे। वे अगर वीतरागी सर्वज्ञ ओर हितोपदेशी है तो अवश्य
ही ““दोष अट्ठारह रहित जिनेश्वर'* अट्ठारह दोषो से रहित होते हे । वे दोष कौन से
क्षुत्पिपासा जरातंङक् जन्मान्तकभयस्मयाः।
न राग द्वेष मोहाश्चयस्याप्तः स प्रकीर्यते ।।
जिनके भूख-प्यास. जन्म-मरण, बुढापा, रोग, शोक, भय, मद, मोह, चिन्ता, अरति,
निन्द्रा, आश्चर्य, खेद, पसीना आना, राग-द्वेष ये अट्ठारह दोष हे । जिनमे ये दोष नहीं
होते वे ही सच्चे देव हैं।
ये बात सच है कि ससार के प्रत्येक प्राणी में कुछ न कुछ दोष अवश्य है। जिस
प्रकार रोम-रहित रीछ का मिलना मुश्किल है उसी प्रकार दोष-रहित जीव का मिलना
मुश्किल है। लेकिन इस संसार में रहकर जो आप्तपने को प्राप्त हो जाते हैं, वे पूर्णतया
18 दोषों से रहित हो जाते हैं। जिस प्रकार स्वर्ण अग्नि का संयोग पाकर पूर्ण शुद्धता
को धारण कर लेता है, कालिमा-रहित हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य भी सत्संग,
सत्साधना, इन्द्रिय-निग्रह एकाग्रमना होकर सुतप की अग्नि में समस्त कर्मो का नाश कर
आत्मा को शुद्ध निर्दोष बना लेता है और परमात्मा का रूप धारण कर लेता है। संसार
में दोष कर्मों के सद्भाव से उत्पन्न होते हैं।
अरहन्त देव के ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी मोहनीय ओर अन्तराय के क्षय हो जाने के
कारण 18 दोष नहीं होते हैं। इन दोषों मे सर्वं प्रथम दोष भूख है | प्रायः संसार मेँ पाप
पेट के कारण होते हैं। कहा भी है :-
“बुभुक्षितं कि न करोति पापं'!
User Reviews
No Reviews | Add Yours...