स्वतन्त्रता का सोपान | Svantrata Ka Sopan

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Svantrata Ka Sopan  by बी. सीतलप्रसाद - B. Seetalprasaad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ 1 स्वतंत्रता का सोपानं स्वतः ही छट जाता है । स्वतंत्रता मेरी हो निज नगरी है। उसी में विश्राम करता हूं । ५. सहज सुखों का घर स्वतन्त्रता आत्मा का स्वतन्त्र हक है। स्वतन्त्रता आत्मा का निज स्वभाव हैं; स्वतन्त्रता से पूर्णपने आत्मा की शक्तियाँ अपना-२ कांम करती है। स्वतन्त्रता बंधनों के त्याग से होती है। बंधनों को काटना उचित है। बन्धनों में अपने को पटकने वाला ही यही आत्मा है। जब यह राग-द्वेष, मोह से मैला होता है यह अपने में कर्मबन्ध कर लेता है । जब यह वीतराग भावसे शुद्ध होता है तब यह कमंबन्ध काट कर स्वतम्त्र हो जाता है। वीतराग भाव में रहने का उपाय पर से असहयोग व आत्मा के साथ पूणे सहयोग हैं । एकदम अपने आत्मा “ की सम्पत्ति के सिवाय पर सम्पत्ति से पूर्ण वेराग्य की आवश्यकता है। तथा निज ज्ञान दशेन सुख वोर्यादि सम्पत्ति से पूणं अनुराग को आव- इयकता है । जो जिसका प्रेमी होत है वहु उसको अवश्य प्राप्त कर लेता है । «» स्वभाव का प्रेम करना ही सम्यग्दश्शंन है । स्वभाव का जानना सम्यग्ज्ञान है। स्वभाव में लीन होना सम्यकचारित्र है। स्वभाव में रमण की आवश्यकता है। स्वभाव में रमण का उपाय स्व-स्वभाव में ही स्व-स्वभाव रूप देखना है । जब हेय कौ अपेक्षा से स्व-पदाथंको देखा जाता है तो यही भासता है कि उस पदार्थ में पर वस्तु का संयोग न कभी था न है, न कभो होगा । वह सदा ही अबन्ध-अस्पृश्य है, एक रूप है, अभेद है, निश्चल हे, पर संयोग से रहिन है। पर से शून्य व निज सम्पत्ति से अशून्य है । मन व इन्द्रियों से अगोचर है । परन्तु अपने अतीन्द्रिय स्वभाव से अनुभवं करने याग्य है। सहज ज्ञान दहन का सागर है । सहज वीयं तथा सहज सुखो का घर है । इसमे ज्ञाता-ज्ञेय, घ्याता-ध्येय, कर्ता, कम॑, क्रिया, गुण, गुणी, एक-अनेक, नित्य-अनित्य,




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