भूत का भविष्य | Bhoot Ka Bhivashya

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Bhoot Ka Bhivashya by इलाचन्द्र जोशी - Elachandra Joshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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= मंच से चला गया और कव से उसके स्थान पर एक दसरा कवि अपनी तीरस कविता अपनी कर्कश वाणी में सुना रहाथा। वह फिर नौरस यथाथ की दुनिया में अपना सिर पटकने को वाध्य हो गयी। इच्छा कि तत्काल उठकर वाहर के एकान्त सन्नाटे के अंधकार में चली जाये ओर अपने खोये हुए सपने में डुव जाये । वह एक बार सचमच उठने लगी थी, पर उसकी बगल में वैठी सहेली ने उसका हाथ पकड़कर भटके से उसे फिर नीचे विठा दिया। शेप कवियों की रचनाएं वह अद्धंचेतनावस्था में वरवस सुनती रही | श्रन्त में जब कवि-सम्मेलन की समाप्ति की घोषणा हुई श्र श्रोतागण हाल से एक-एक करके वाहर निकल गये, नन्‍्दा तब भी नहीं उठी । श्रटोग्राफ के आ्राकांक्षी युवक श्रीर युवतियों के साथ वह हॉल में खड़ी थी । नन्‍्दा की सहेली ने प्रस्ताव पास किया कि चलो हम भी दो-एक कवियों के झ्ॉटोग्राफ क्यों न लें। अलबम तो तुम साथ में लायी ही होगी ? मैं तो लायी हूँ। चलो उठो। और जड़-सी वनी हुई नन्‍दा को उसने बरवस ऊपर उठाया और दोनों सीधे मंच की ओर बढ़ीं । नन्‍्दा ने तनिक मिफक के साथ अपनी कॉपी सीधे राकेश की ओर बढ़ा दी । राकेश ने एक वार गौर से उसकी ओर देखकर लपकते हुए कॉपी अपने हाथ में ली और ननन्‍्दा की ही कलम उसके हाथ से हल्के कटके के साथ छीनकर ठाठ से कॉपी के एक खाली और रंगीन पन्ने पर लिख दिया : “प्रेम ही सच्ची मुक्ति है। इस अनुभव को छोड़कर सवकुछ भ्रम और भटकाव है ।--राकेश खड़े कवि का लिखित सन्देश पढ़ा | पढ़ते ही उसके चेहरे पर लाली दोड़ गयी और भागती हुई-सी वह पीछे की ओर लौट पड़ी । तब से फिर वाई वार छोटे और बड़े कवि-सम्मेलनों में राकेश से नन्‍्दा का मिलन होता रहा और दोनों के बोच घनिप्टता बढ़ती गयी। इस घनिष्टता के फलस्वरूप नन्‍दा को ऐसा लगता रहा कि उसके चारों शोर के संकीर्ण वातावरण की दुर्लध्य और अट्ट चहारदीवारी बीच में कहीं से धीरे-धीरे ट्टती चली जा रही है और उसके वाहर के आकाश की अपूर्व भूत कावि: पु




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