नवराग | Navraag
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
191
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दाढी ! वैसे दाढ़ी में कच्चे यानी काले वाल ही अधिक थे, वस, ऊपरूऊपर ही'
कहीं-कहीं एका भी तजर आते थे ! लेकिव आज लप-पोस्ट के नीचे
कहीं-कहीं एकाध पके वाल भं ৭ दुर्सक-सफेद थी! ““खैर
जो आदमी खड़ा था, उसकी दाढ़ी तो रेशम जंसी -सफद 1 . ध +
इतने साल गुजर गये, यह फर्क तो आना ही था! वही कोटर में धंसी हुई एफ
जोडी जीवंत आंखें ! नुकीली ताक, हंसमुख चेहरा--भला, उन्हें पहचानने बह
नारायणी भूल कर सकती है ? लेकिन अगर कोई खास वजह न होती, तौ वह
आदमी भला वहां क्यों खड़ा होता ? उससे पल भर को नजरें मिलते ही, उसने मानौ
पुरानी पहचान याद दिलाने की कोशिश की हो ! हालांकि उन दोनों ने एक-दूसरे
की शायद झलक भर ही देखी थी, लेकिन नारायणी को यही महसूस हुआ था । है
लेकित ऐसा भला कैसे संभव है? उनकी गाड़ी तो रुकी नहीं थी ! इसके
अलावा, रात के अंधेरे में, किसी की सूरत-शकल इससे वेहतर भला क्या दिखाई
देती ? नहीं, नारायणी को धोखा ही हुआ होगा ! आज वह जितना चढ़ाकर
लौटी है, ऐसी गलतफहमी सरासर संभव है ! गाड़ी से उतरते हुए, उसे अपना
दिमाग बेहद खाली-लाली लग रहा था, गले मेँ अजव-सी उवकारई ! पता नही,
किसे देखकर, क्या समज्ञ लिया !
“तुम क्या किसी का इंतजार कर रही हौ ?“
नारायणी अचकेचा गयी । अंदर ही अंदर कहीं वह वेतरह परेशान भी हो'
उठी थी ! गाड़ी से उत्तरने के वाद भी, वह मुड़-मुड़कर, सुदूर गेट की तरफ देख
रही थी। “नहीं, मुझे भला किसका इंतजार होगा ? ”
वह हड़बवड़ाती हुईं सीढ़ियों की तरफ बढ़ी । विपुलानंद ने आगे बढ़कर उसके
कंधों को सहारा दिया ।
सीढ़ियां पार करके, वे दोनों साथ-साथ चलते हुए वरामदे में आये | यहां:
कंधे पर हाथ रखकर चलने की रीति, इतनी चिर-परिचित है कि इस घर के
नौकेर-चाकरों की निगाहों में भी कहीं कुछ नहीं खटकता। वे लोग जान गये [|
किं दौलतमंद अमीरों के रख-रखाव का यह् खास-अंदाज है । अमीर लोग सिर्फ
अपनी वीवी के ही कंधे पर नहीं, औरों की वीवियों के कंधों पर भी हाथ रखकर-
चलते हैं। उनकी आंखें इस दृश्य की अभ्यस्त हो चुकी हैं। लेकित वरामदे तक'
पहुँचकर भी आज उसके मालिक ने उसके कंधे से हाथ नहीं हटाया। उसी तरह
उसे वाहो मे घेरे हुए, वह् सीढ़ी के किनारेवाली लिफ्ट में दाखिल हुआ ! हालांकि
एक लिफ्टमैन वहां हमेशा मौजूद रहता है, लेकिन आने-जानेवाले हमेशा खुद ही-
लिपट चलाकर ऊपर जति दै 1 लिपटमैन दुर खड़ा-खड़ा, वस, देखता रहता है।
किसी अजनवी मेहमान के आने पर ही उसकी जरूरत पड़ती है!
लिपट दूसरे मंजिले के वरामदे के सामने आ रुकी। वे लोग बाहर निकल
आये। विपुलानंद का एक हाथ अभी भी नारायणी के कंधे प्र पड़ा हुआ था।
“१६ | नवराग
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