प्राच्य और पाश्चात्य | Prachaya Aour Paschatya

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Prachaya Aour Paschatya by पंडित नरोत्तम व्यास - Pt. Narottam Vyas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मुक्ति काम ओर धर्म के आइश की भिन्नता । और दौवार की दीवार ही रहती हैं । मनुष्य चोरी करता है, झूठ बोलता है, तिस पर भी वह देवता बन जाता है। सत्वप्रधान अवस्था में मदृष्य निष्किय होता है, परम ध्यानावस्था को प्राप्त होता है, रजप्रधान में भत्नी बुरी क्रिया करता है ओर तमप्रधान में फिर निष्किय जड़ हो जाता है | इस लमय हम बाहरी अवस्था में हें-अब बताओ यह खत्व प्रधान अवस्था है या तम-प्रधान | यह किस तरह से समभ? श्रव हम सुखदुःख के पार क्रियाहीन शान्तरूप स्वत्व अवस्था में हें-- कि प्राशहीन, जड़प्राय, शक्ति के अभाव से क्रियाहीन महा तामलिक अवस्था में पड़े धीरे धीरे ओर छुप चाप अपने जीवन को गला रहे है इस बात का जवाब दो-अपने मन से पूछी | क्या जवाब हे ?- “फलेन परिचीयते” ही न ? सत्व प्रधान में मनुष्य निष्क्रिय होता है, शान्त होता है, किन्तु वह निष्क्रियता महाशक्ति के केन्द्रीमत होकर रहती है, वह शान्ति महाचीय्य की जननी है । उसके निवासी उस महापुरुष को फिर हमारी भांति हाथ पेर हिला कर काम नहीं करना पड़ता-उसकी इच्छा मात्र से हो सब काम अनायास सम्पन्न हो जाते हैं। वह पुरुष ही सत्वगुण प्रधान प्राह्मण है, सर्वल्लोक पूज्य है; उसे फिर यह कहते हुए-“मेरी पूजः करो” गछ्ली कू थे नहीं फिरना पड॒ता। जगदम्बा उसके कपाल-फलक पर अपने हाथों से लिख देती है कि इस महापुरुष की सभी लोग पूजा कर ओर इसकी आज्ञा को तमाम संसार अवनत मस्तक से स्वीकार करे। वही महापुरुष-''निवरः सब भतातनां मेत्र: करुण एव च? है | ओर यह जो मिनमिने पिनपिने संह चला र्लं कर वाते करतें फिरते ह, दुबले पतले रातदिन यखां कमी भादि मसी वाज, बिना खत थप्पड़ खये वात न कहने चाले श्रादमी ही तमोगुखी हठे है, उपरो क्रद्चए उनकी मृत्यु के तचत है, मे




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