मध्यकालीन संस्कृत नाटक | Madhyakalin Sanskrit Natak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हनुमन्नाटक ध आये । इन दोनों धाराओं के श्ढोक हनुमज्ञावक में संग्रहीत दें । यथा, राम यन- अस्थान के पद कहते हैं-- मां बाघते न दि तथा गहनेपु वासो राज्यारुचिर्जनकवान्घववत्सलस्य । रामालुजस्य भरतस्य यथा प्रियायाः पादारविन्दगमनक्षतिरुतपलादयाः ॥ ३८६ इसके पहले वानप्रस्थ की सान्ध्यबेला में कहा गया है-- रामभरती स्व स््रें कालमधिगस्य हर्पशोभरी नाटयन्ती ुरोपिरा जटावल्क- लच्छन्रचामरधारिणी दन प्रस्थानराज्याभिपेकारम्भाय राजन दशरथ नमस्क्तु- मवतरतः ! सत्र भरतः हा तात मातरददह ज्वलितानलों मां कामं दहत्वशनिशेलकपाणबाणः | मध्न्ठु ताद्‌ विपहते भरत: सलीलं हा रामचन्द्रपदयोने पुनवियोगमू ॥! ३.४ यह सब चनप्स्थान के पहले है । किर यदि आगे 'चल कर भरत केकेयी से एछुते हैं कि रास क्योंकर बन गये तो यह नीचे का प्रकरण स्पष्टतः दूसरी कथाधारा ही का दे । यथा, मातस्तात कर यातः सुरपतिभवनं हा कुतः पुनरशोकात्‌ पुत्रश्नचुर्णा त्यमवरजतया यस्य जात: किमस्य | काननान्तं किमिति किं तथासी चभापे मद्दाग्वद्धः फलें ते किमिद्द 'तव घराधीशता हा हतो5स्मि ॥ ३८८ केकेयी ने दशरथ-शाप को परिणति देने के उद्देश्य को अपने समक्त रखकर राम का चनवास मौंगा--यद भी इजुभन्नाटक की एक नई योजना है, जिसका मूठ प्रतिमा- नाटक में निद्ित है । प्रतिमानाटक में इस योजना के द्वारा केकेयी के 'चरित का श्रेठी- करण सम्भव हुआ है, जो इस नाटक में नहीं ो सका दे। इसमें केकेयी को दत्त चित्रित किया गया है । कई पथ इजुमशाटक में अपने प्रसंग से घाहर जोड़े हुए प्रतीत होते हैं । यथा, सुमित्रा का चित्रकूट में छच्मण से कद्दना-- रामं दशरथं विद्धि मां विद्धि जनकात्मजाम्‌ | अयोध्यामट्दी दिद्धि गच्छ पुत्र यवासुसमू ॥ यदद लूदमण के अयोध्या छोड़ते समय कद जाता 'चादिए था 1 इघर-उघर से पर्धों को लेकर इस नाटक में पिरोते समय श्पनी कोर से सदपढ़ टिप्पणियां जोड़ दी गई ईं । यया, एक टिप्पणी दै--




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