सायण और दयानन्द | Sayan Aur Dayanand

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Sayan Aur Dayanand by गंगाप्रसाद उपाध्याय - Gangaprasad Upadhyaya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कुछ आरम्मिक बातें ७ प्रसिद्ध हो चुका था कि वेद्‌ सत्‌युग के लिये थे, उस समय ऋषियों में यह योग्यता थी कि बलि में मारे हुये पशु को भी जिलाकर स्वर्ग भेज देते थे। अब वह काल गया, और बेढों का वेद्त्व अब लुप्त हो गया | ऋलियुग वालों के लिये केवल राम-नाम ओर और हनुमान चालीसा ही पर्याप्त है। पढ़े-लिखे लोग तो इसको सी एक ग्रामीण कल्पना ही समभते थे। उनका ध्यान तो पश्चिम की ओर था। उनको लाड मैकाले के इस कथन में अधिक सार दिखाई देता था कि भारतीय संस्कृति के मुख्य अरन्य से तो अलमारी का एक खाना भी न भरेगा जब कि पाश्चात्य विद्या का भंडार अनन्त और अतुल है । परिस्थितियों का साधनों पर बड़ा प्रभाव पड़ता हे । सायण को विजयनगर राज्य के एक उदार और संस्कृति-श्यि बुक्‍्का राजा की शरण मिल गहं । वह्‌ एक राजकीय भाषा-समिति कं अध्यक्त हो गये । उनके नीचे उस समय के प्रकाण्ड परिडितों की भ्रमुख मण्डली थी जिसमें धुरन्धर वैयाकरण, नैरुक्त, श्रौत, स्मतं সন্ত के वेत्ता उपस्थित थे । उस समय प्राचीन मन्थमभी कम से कम उस राज्य की राजधानी में प्रचुर संख्या में रहे होंगे ओर স্তবীন পন্থা को प्राप्त करने के लिये राजकीय साधन उपस्थित रहे होंगे । सायणाचाय की इस भाष्यकार-मंडली को चारो वेदो, शतपथ त्राह्मण आदि अन्य ग्रन्थों के भाष्य करने में कितना समय लगा, उस पर कितना धन व्यय हुआ, इसके जानने की हमारे पास सामग्री नहीं है। आज्ञकल के राजकीय विभागों




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