राजशास्त्र के मूल सिद्धान्त भाग २ | Rajshastra Ke Mool Siddhant Bhaag-2

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Rajshastra Ke Mool Siddhant Bhaag-2 by ब्रजमोहन शर्मा - Brajmohan Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० .... राजशास्त्र के मूल सिद्धान्त अनुसार कार्य करने का अवसर दे और जो जो बाधाएँ उसके मार्ग में आये उन्हें हटाने का प्रयत्न करे। प्रेक्षा-युक्‍्त कार्य ही स्वतन्त्र कार्य है। यही सिद्धान्त हैगिल का भी है । इस प्रकार ग्रीन पर हँगिल का भी प्रभाव पड़ा है। रिश्ी (1२10८11८ ) का कथन है कि ग्रीन ने हैगिल के इस सिद्धान्त को अपनाया है कि राज्य का ध्येय मनुष्य की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की प्राप्ति है और किसी विशेष इच्छा की पूर्ति ही स्वतन्त्रता नहीं है बल्कि सब अरकार की सदेच्छाओं की पूर्ति करते हुए पूर्ण आत्मोन्नति करना ही वास्तविक स्वतन्तत) हं । ग्रीन के सिद्धान्त में कैन्ट के सिद्धान्त का भी समावेश है | নল का „मत हं कि “वह्‌ व्यक्ति स्वतन्त्र है जिसे इस बात की आत्मचेतना है कि में / “अपने बनाये हुए विधानों षा पालन करता हूँ ।” परन्तु ग्रीन हैगिछ के इस मत ` „कष नहीं मानता है कि “ प्रत्यक्ष ही धूक्तिमूलक तथा युक्तिमूछक ही प्रत्यक्ष ह्‌ । / ग्रीन का म॑तहं कि व्यक्तिगत उन्नति कै ङि नैतिकता का होना अत्यन्त आव- हुं । ग्रीन का राज्य-सिद्धान्त--प्रीन का विचार है कि मनुप्य की व्यव्रिति- गत नैतिक उन्नति के लिए राज्य ও परम आवश्यक संस्था है। मनुष्य की सामान्य इच्छा ही राज्य है। राज्य सर्व शावितमान सत्ता नहीं है । राज्य अनेक प्रकार के वाह्य तथा आन्तरिक प्रतिबंधों के कारण एक परिमित शवित है। वाह्य विषयों में राज्य अन्तर्राष्ट्रीय अनुबंधों तथा संधियों द्वारा सीमित है। अन्तर्राष्ट्रीय संधियों को मानना राज्य का कर्तव्य है | आधुनिक काल में औद्योगिक उन्नति तथा अन्य _ आविष्कारों के कारण राज्यों में पारस्परिक संबंध स्थापित रहना अनिवार्य हो गया है । अतः ग्रीन का विचार है कि अन्तर्राष्ट्रीय औद्योगिक, व्यावसायिक, आशिक तथा अन्य प्रंकार की आवस्यक संधियों का मानना ओर्‌ निभाना राज्यों के लिए परम आवश्यक ह । आन्तरिक विषयों में भी राज्य का कार्यक्षेत्र सीमित है। उसका विचार है कि राज्य में मनुष्य को सब प्रकार की व्यवितगत तथा सामू- हिक उन्नति करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए। जहां जहां छोगों की नतत तथा. सासदिक उत्ति भे बाधाएँ उपस्थित हों, वहीं वहीं राज्य को हस्तक्षेप करना चाहिए और उन बाधाओं का निरोध अथवा निवारण करना चाहिए । मनुष्य के श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करने में राज्य को किसी प्रकार से ` वाधक क होना चाहिए, अपितु उसुके श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करने मे वाधक होने वार निग्रहं का निवारण करना नादिए । अतः राज्य का कर्तव्य “अवरोधों का निरोध करना” है । ग्रीन का विश्वास है कि प्रत्येक व्यक्ति की आत्मअनुभूति में




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