चतुरी चमार | Chaturi Chamaar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ [ चतुरी वमार नत्थू-खैरे सबको पानी पिलाता फिर । इससे लोग श्रौर नाराज दो गये थे। साद्दित्य की तरह समाज में भी दूर-दूर तक मेरी तारीफ़ फैल चुकी थी--विशेष रूप से जब एक दिन विलायत की रोटी-पार्टी की तारीफ़ करनेवाले एक देहाती स्वामीजी को मेने कबाव खाकर काबुल में प्रचार करनेवाले, रामचन्द्रजी के वक्त के, एक ऋषि की कथा सुनाई, ओर मुझसे सुनकर वहीं गाँव के ब्राह्मणों के सामने बीड़ी पीने के लिए प्रचार करके भी वह मुझे नीचा नहीं दिखा सके--उन दिनों भाग्य- बश मिले हुए अपने आवारागद नौकर से बीड़ी लेकर, सबके सामने दियासलाई लगाकर मेंने समझा दिया कि तुम्हारा इस जूठे धुएँ से बढ़कर मेरे पास दूसरा महत्त्व नहीं । में इन आश्चये की आँखों के भीतर बादाम और ठण्डाई लेकर ज़रा रीढ़ सीधी करने को हुआ कि एक बुड़ढे पंडितजी एक देहाती भाई के साथ मेरी ओर बढ़ते नज़र आये। मेंने सोचा, शायद कुछ पदेश होगा। पंडितजी सारी शिकायत पीकर, मधु-मुख हो अपने प्रदशक से बोले--“आप ही हैं?” उसने कहा--हाँ, यही हैं.।” पंडितजी देखकर गद्गद हो गये। ठोढ़ी उठाकर बोले--“ओदहोहो ! आप धन्य हैं ।” मेंने मन में कहा--“नहीं, में वन्य हूँ । मज़ाक करता है खूसट ।” पर गौर से उनका परग ओर खोर देखकर कहा--“प्रणाम करता हूँ पंडितजी ।” पडितजी मारे प्रेम के संज्ञा खो बेठे । मेरा प्रणाम मामली प्रणाम नहीं-बड़े भाग्य से मिलता है। में खड़ा पंडितनी को देखता रहा | पंडितज्ञी ने अपने देहाती साथी से पूछा--“आप बे-मे सब पास हैं ?” उनका साथी अत्यन्त गम्भीर होकर बोला--“हाँ ! जिला में दूसरा नहीं है ।” होंठ काटकर मैंने कहा--“पंडितजी, रास्ते में दो नाले और एक नदी पड़ती है। भेड़िए लागन हैं। डंडा नहीं लाया । श्राज्ञा हो, तो चलूँ--शाम हो रद्दी है।” पंडितजी स्नेह से देखने लगे । जो शिकायत उन्होंने सुनी थी, आँखों में उस पर सन्देह्ू था; दृष्टि कह रही थी--“यह बैसा नदीं--जरूर गोश्त न खाता होगा,




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