विचार विमर्श | Vichar Vimarsh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( & 9 कर रहा है, परंतु उसमें शांति नहीं मिली | अतएवं असीम हदय के अन्वेषण के लिये ससोम हृदय उत्कंठा से निकला | यहीं रहस्यवाद का मूल उद॒गम हौ । चिंतन-जगत्‌ में जो ब्रह्मा अथवा अद्वतवाद है, भावना-जगत में बही रहस्यवाद कदलावा-है | भाव-प्राबल्य-जन्यतद्रपशीलता में रदस्यवारके प्रादुमोव का रहस्य है । भारतीय भ्रं में रहस्यवाद की संदर व्याख्या गीता के अधोलिखित श्लोक में मिलती है- स्वभृतेषु यनेक भावमव्ययमीक्षते ; अविभक्त विभक्तंषु तज्जानं विद्धि साच्विक्रम्‌ | परतु काव्य-गत रहस्यवाद का संबंध ज्ञान स न होकर द्वद्य से है | रहस्यवाद की विवेचना में बोन साहब ने उसे तीन स्थितियों सं अवस्थित किया है--( १ ) देवी भाव ( २) देती ज्ञान तथाः ( ३ ) देवी उपासना। वास्तव में काव्य-ग्रहीत रहस्यवाद पहली स्थिति की अभिव्यक्ति है |दूसरी ओर तंसरी से उसका संबंध उतना नहीं है। मानसिक विकास द्वारा ज्ञान से ऐक्य अनुभव करना दूघरी बात है और भ।वा तिरेक द्वारा हृदय से भावात्मक ऐक्य स्थापित करना दूसरी बात है। काव्य- स्वीकृत रहस्यवाद का संबंध दूसरे अकार स है, पहले प्रकार से नहीं। यद्यपि अंततः दोनों का आशय एक ही है, परंतु साहित्य में दोनों के क्षेत्र भिन्न हैं । एक को दर्शन के ओर दूसरे के काव्य के अंतगत रक्खा गया है। जहाँ-जहाँ एक का स्थान दू+रे ने लिया है, वर्डाँ-वदाँ अस्त-व्यस्तता उत्पन्न हो डाई है। महाभारत-काठ्य में गीता का समावेश उसके दाशे निक मूल्य का बहुत कुछ कम कर देता है और काव्य का प्रत्यक्ष विरोध होने से गीता के विचारों पर अताझिक दोने का दोष ना जाता है। इसी से गीता से भिन्न-भिन्न मत चल निकले हैं । झइुसी प्रकार कबीर महोदय ने विशिष्ट दाशंनिक वाद्‌ को पद्य के कटहरे में बंद करमे का कई स्थानों में प्रयत्न किया है । अएतव




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