आर्य - जीवन | Arya Jeevan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सूचना ज्‌ अति आवदयकीय शब्दों के मूल अभिन्न है। वे विद्वान इस भूखंड के रोगो को काक्रेशीय' या आर्य नाम से निर्देश करते है । भाषा-विज्ञान-वित्‌ और जाति-तत्व-संदिच्छु और ऐतिहासिक पडितों का यह तक और सिद्धांत. अभ्रात हो सकता है तब भी मस्तक के अस्थि-विधान या भाषा के मूल शब्द टटोंलने से ही जातीयता नहीं है |इस समस्त देश के मनुष्यों का आदि-पुरुष एक है और इनमे पर्रपर रक्त-सम्पक है --इईतने ही से डनका जावाय व्यक्तित्व एक है यह नही कहा जा सकता | अवयव, आकृति, और भाषा का सामजस्य तो जाति का जड- पिड मात्र है, जीवन का आदङां भौर उसकी परपरा उसमे सव॑श्र भौर सर्वातिभाव से वध कर नहीं रह सकते | एक जीवि वृक्ष की शाखा या पत्ते खाद के रूप में दूसरे दक्ष की अंग वृद्धि कर सकते है- उसके जीवन में अपनी शक्ति मिला दे सकते हैं --विद्वान्‌ लोगों के लछिय विज्ञान के बल से यह जान डना अद्राक्य नही, किन्तु, मूल वक्ष से एक बार्‌ मन्ध हट जान पर उसकी शाखा या पत्ते फिर मुलवुक्ष के अश रूप मे अरह्ण नहीं किये जा सकते, और न वह वक्ष ही मुलवुक्ष के साथ एक हो सकता है जो उन शाखा या पत्तों से पुष्टि पाता है । जो बात व॒क्ष के लिये है वहा जाति के जीवन में भी है। भौतिक विग्रह या जड-पिड जीवन नही है । केवलछ रक्त-सम्पके वंदा- परम्परा नहीं है, और पितृ-पुरुष एक हा तो सदा ही जातीय-जीवन एक हो गा--उसकी कोई वजह नहीं है । जीवन एक क्रम-वद्ध न-शोल-नीति या नियम है। चारों ओर से हमेशा कितबी ही शक्तिया सम्पक, ससगं, साहचय के द्वारा इस क्रम- नवद्ध न को बढाती रहती है | जीवन-परम्परा में प्रत्येक अवस्था के प्रभाव বাকি




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