अभिषेकपाठ - संग्रह: | Abhishekpath Sangraha

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Abhishekpath Sangraha by इन्द्रलाल शास्त्री जैन - Indralal Shastri Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ७ 1 लदमीरात्यन्तिकी यस्य निरवधावभासते | देषनम्दितपूजेशे नमस्तस्मै स्ययम्भुषे ॥ १॥ सिद्धिभ्रिय का यह्‌ अन्तिम प्य है, यह पय षडारचक्र है । यथा-- तटं देशनया अनस्य मनसे येन स्थितं दिर्सता, संस्तु विजानता शमवता येन शता क्ूखटरता । मध्यानंद्करेण येन महतां तच्वपणीतिः कता, वापं हन्तु जिनः स मे श्ुमधियां वातः सतवामीशिता।२५। टीकाकार लिखते है “'देवमन्दिङृतिः इत्यङ्कगर्भे, षडारचक्रमिदं 1» इस छंद को षडारचक्र के आकार में लिखने पर ऊपर के तीसरे बलय में देवनंद्किति:' ऐसा निकल आता है । इस तरह अपना नाम सूचित करने की परिपाटी और भी अनेक प्रन्थकर्ताओं की देखी जाती है । वह्‌ उन के प्रन्थो में सुस्पष्ट दै । पूञासार भाम का एक ग्रन्थ है, उस में यह “अभिषेकपाठ' पूर्ण सदूघृत है। पूजासार कम से कम पांचसी वर्ष का पुराना दै तः श्राजसे पाँचसौ वर्ष पहले अर्थात्‌ वि० सं० १५०० के लगभग भी इस का अस्तित्व था | अयप्पाये ने “जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय” नाम का प्रन्थ शक सं० १२७९ बि० सं० १३७६ में बनाया है । उस में वह उल्लेख करता है कि- “ति पृज्यपादामिषेकेण गजांकुशामिषेकेण था तदृ॒पेणमभिषि- स्याप्विधासने: ध्यअपटमम्पच्य नयनोन्मीलनादिक कुयांत ।” इस पर से दो बातें साबित होती हैं । एक तो पूज्यपाद का कोई अभिषेक विषय का ग्रन्थ है। दूसरो विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में भी यह प्रन्थ था १ शिलालेख नं० ४० (६४ ) में निम्न लिखित दो पद्य दिये गये हैं।




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