विश्वभारती पत्रिका | Vishvabharati Patrika

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हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।

द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आधुनिक भारतीय चित्रकला । ৭৭ कला की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, नंद्लाल बसु, सुरेद्रनाथ गांगुली, वेकटप्पा, असितकुमार हात्दार, समरेंद्रनाथ गुप्त, क्षितीन्द्रनाथ मजुमदार और शेलेन्रनाथ दे। अवनीन्द्रनाथ की शिक्षण - पद्धति पर मी थोड़ा प्रकारा डालना चाहिए 1 आरं स्कूल में चालू शिक्षण प्रणाली की चर्चा करते हुए हम कह चुके हैं कि उसके शिक्षण में कोई उल्लेखयोग्य विशेषता नहीं थी, केवल कुछ विधिविषयक चाते' ही बताई जाती थी1 अवनीन्द्नाथ ने शिक्षण की कोई विशेष शास्त्रीय. पद्धति नहीं प्रस्तुत की । उन्होंने अनुकूल वातावरण की सृष्टि करने तथा स्वतंत्रता को प्रोत्साहित करने पर बल दिया जो एक सुजनशील कलाकार के लिए आवश्यक हैं। इस उदारता के फलस्वरूप थॉड़ें ही समय में अवनीन्द्र-कछा-शैली के नाम से प्रसिद्ध कला के क्षेत्र में अचुर वेविध्य दिखाई देने लगा । । अवनीद्धनाथ के आदश के साथ प्राचीन भारतीय आदश को साथ मिला कर पहले पहल एक निश्चित रूप दिया नंदलाल वसु ने । नंदरऊाल ही पहले कलाकार थे जिनकी क्तियों भें हम प्राचीन भारतीय शेली और अलंकरण तत्त्व देखते हैं और यह उनके प्रयास तथा प्रभाव का ही फल है कि भारतीय पद्धति ओर उपकरण कलाकारों तथा कलाप्रेमियों में इतने प्रिय हो गए । नंदलाल ने विविध रूपों और विधियों में प्रयोग किए। बिना किसी संकोच के यह कहा जा सकता है कि उन्होंने पूर्वीय कला के संपूर्ण विस्तार का अभ्ययन किया। इस विस्तृत ओर विविधपक्षीय ज्ञान के होते हुए भी नंद्लाल की कृतियाँ सदेव सहज रहीं । रंगों की बहुत ही सीमित परिधि के भीतर उन्होंने कृतियों को रखा है, दिन प्रतिदिन उनके कला-हूप सहजतर होते गए। अपनी प्रोढ़ क्ृतियों में अलंकरण के सभी तत्त्व उन्होंने छोड़ दिए हैं। इसके -स्थान पर उन्होंने भारतीय कला के, विशेषहूप से मूर्तिकला के, स्वरूप को समाविष्ट किया है |-- नंद्लाल की प्रतिभा के विकास को समभने के लिए निम्न कृतियों का अध्ययन आवश्यक है: १, रामायण चित्रमाला | २, उमाका शोक ३, शबरी की प्रतीक्षा ४, स्वणघट ( चित्र पट्टिका ) ৬. उनके भित्तिचिच और १९४० के बाद,के स्याही के रेखांचित्र । तुलना करने पर हम कह सकते हैं कि अवनीन्द्रनाथ के चित्रण की गीतात्मक शैली को সি পভৃভাত ने अधिक विषयपरक तथा नाटकीय बनाया। असितकुमार के चित्रों में हमें নু ~ द -६ ५ चश হি हू সে




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