एक माताव्रत | Ek Matavrat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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माता की पति-सेवा का उतना नहीं--कहें कि कुछ भी नहीं। मालुम होता है, गाँधी जी की पितृ-सेवा के सामने उनकी माता की पति-्सेवा के लिए जैसे गुज्ञायश ही नहीं रह गयी थी | सिफ एक मा था--वत- त्तपत्या का | कठिन-सें-कढिन त्रत वह करतीं, बीमारी के दिनों में भी | चतुर्मास मेँ उन्होने प्रण किया, सूयं को देखकर ही भोजन करेंगी । घटा-पानी में सूर्य-दर्शन मुश्किल हो जाते। इन व्रतो का जिक्र करते हुए गाँधी जी कहते हैं, “ऐसे दिन मुझे याद हैं, जब सूर्य को देखकर हमने पुकारा है, मोमो, वह सूरज निकला ! लेकिन मों के आने तक सूरज छिप जाता । मॉ कहतों, खैर, कोई बात नहीं; ईश्वर नहों चाहता कि में आज भोजन खाऊ।” आश्चर्य है, गॉधी जी नास्तिक नहीं बने, हालाँकि जगत-बापू वह बन गए, हैं। अपनी पितृ-भक्ति तथा माता को सहनशीलता के आदर्श की प्रति मूति के रूप में स्थापित करने का अवसर লী उन्हें इसी की बदौलत मिला है | माता जी के त्रत-उपवासों का पिताजी पर क्या श्रौर किस तरह का प्रभाव पड़ता था, इसका पता नहीं चलता | घर की चहारदीवारी मे दो ही चीजे जसे हमारे सामने श्राती है--माता के तरत-उपवास श्नौर पुत्र की पितृ-सेवा। भाता की व्यवहार-कुशलता, बुद्धि और योग्यता, गाधी जी कहते हैं, रनवास में ढीक-ढीक आड्डी जाती थी | माँ साहब-- उाकुर साहब की विधवा माता और चालीस वर्षीय कवा गाधी की युवा पत्नी एक-दूसरे को समझती थीं, ठीक मूल्य आकती थीं | गाधी जी की स्टृति में यह सम्मेलन अब तक ताज़ा है | पितृ-सेवा और विषयासक्ति गॉधी जी के जीवन में साथ-साथ, मानो ताल देते, चले हैं| क्लइमैक्स पर दोनों पहुँचे हैं पिता की बीमारी के प ১৯০১ ৯০১৪ २९ |




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