प्रबन्ध - पीयूष | Prabandh Piyush

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ छ | से अनुवाद करके मुहावरे अथवा लोकोयं न रक्खी जाये, क्‍योंकि ऐसा करने से भाषा का रूप विकृत हो जाता है। जेसे-अँगरेजी के मुहावरे 0 एफ 009 < 92979 {16 10786 के हिन्दी-अनुवाद घोडे के सम्मुख गाड़ी रखनाः का प्रयोग किठना ह्‌ास्यास्पद्‌ होगा। लक्षणा शक्ति का प्रयोग भी भाषा की रोचकता में वृद्धि करता है । जैसे-प्रेम अन्धा होता है । इसके स्थान पर यदि हम कहें प्रेम में सनुष्य को कतंठय अकतेज्य का ज्ञान नहीं रहता! तो यह वाक्य फीका हो जाता है । भाषा म यत्र-तत्र विनोद्‌ का पुट अवश्य रहे । इससे द्ृदय की कली-कली खिल जाती है ओर मन नहीं ऊबता | स्मरण रहे कि विनोद कुरुचि उत्पादक अथवा मयोदा- विरुद्ध न हो । निवन्ध का सौन्द्रयं अलङ्कारोके प्रयोग से वद्‌ जाता दै, पर उनकी भरमार अच्छी नहीं । जहाँ जो अल्लंकार स्वत: विधास्म्वाह मे श्रा जायं उन्हीं को निबन्ध में स्थान दिया जाय | सिर खुजला-खुजलाकर रचना में अलंकार विछाना ठीक नहों। उपसा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि साचश्य सूलक अलंकार भावों को स्पष्टता प्रदान करते ই। उनके प्रयोग में भाषा सें लालित्य एवं रमणीयता आ जाती है। जेसे-'जब साहित्यकार के हृदय-समुद्र में वाह्म परि- स्थितियों द्वारा मंथन होता है तव भाव-लहरें उठने लगती हैं । निचन्ध में यथास्थान उदाहरण देकर विचारों को स्पष्ट और पुष्ठ करना चाहिए । जहाँ कोई सूह्म विचार अकट करना हो वहाँ उदाहरण अवश्य दिया जाय, अन्यथा म 20000.




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