युग - सन्देश | Yug Sandesh

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Yug Sandesh by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चोथा परिच्छेद ~, स्मेश जत्र श्रपने कमरे में पहुँचा, तो तारा अधलेटी-सी आराम- : कुरी पर पड़ी थी । उसने अद्धनिमीलित बड़े-बड़े नंत्रों से पति के धघवराये हुए मुख की ओर देखा और उसके सुन्दर ओठों पर मुसकान की . एक रेखा खिंच गईं । छोटी किन्तु दीखी द्विम की भाँति श्वेत नाक भी । मानो ओठों के साथ दी मुक्तक उठी । उका उन्नत ललाट श्रौर ` उख पर खेलते हुए; काले कुन्तल खिल-खिल पड़ते ये । ह । ` पै, कमरे में घुखते हुए. स्मेश ने गस्जक्रर कदा-- कभी भी ` , वकालत नदीं करूगा ॥ : व्तो न कीजिए, नाथ ! तारा व्यंग्यकी हँसी हँसकर बोली--किन्‍्ठ॒ “ क्रो तो छोड़िए ।' हि .-.. “देखो तारा, तारा का पति खौझकर बोला-- यह हंसी की बात ` नदीं य मेरे लिए, जीवन और मृत्यु का प्रश्न है । - ~ जीवन और म॒त्यु ताय कुरसी पर सीधी ब्ैठ गई | उसके नेत्र | ধু एकाएक पूर्ण रूप से खुल गये | उनमें से निकला हुत्रा हृदयहारी तेज - -स्मेश के चेहरे पर जा फैला | उसके स्वर में एकाएक गम्भीरता श्रा न गई-- मृत्यु का नदीं हाँ जीवन का प्रश्न अवश्य तुम्दारे सम्मुख आ ' खड़ा हुश्रा हे 7 । क ` मृत्यु का क्यों नहीं ! वकालत करूँगा नहीं: और यदि और काम : न मिलेगा, तो-फिर भूखों दी मस्‍ना. होगा / -




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