अशोक के फूल | Ashok Ke Phool
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
232
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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वसन्त खा गया €
जिस स्थान पर बैठकर लिख रहा हूँ डसके आस-पास कुछ थोढ़े-से
पेड दै । एक शिरीष दै, जिस पर लम्बी-लम्बी सुखी दिम्मियां अमी
ल्यकी हुई दै । पत्ते कुच सूद गये हैं ओर कुछ भड़ने के रास्ते में हें ॥
जरा-सी हवा चली नदीं कि अस्थिसालिका वाले उन्मत्त कापालिक सरव
की भांति खडखड़ाकर रूम उठते हैं---'कुसुम जन्म ततों नव पल्लवाः १
का कहीं नाम-गंध भी नहीं है । एक नीस है, जवान दे, मगर कुछ
श्रस्यन्त छोरी किसलयिकाओं के सिवा डसंग का कोर चिह् उसमें भी
नहीं है । फिर सी यह छुरा मालूम नहीं होता। मर्से भीगी हैं और आशा
ठो है ही । दो कृष्णचूड़ाएं हैं। स्वर्गीय कविवर रवीन्द्रनाथ के द्वाथ से
क्षगी वृत्षावलि में ये आखिरी हैं। इन्हें अभी शिशु ही कद्दना चाहिए ।
. कूल तो इनमें कभी झाये नहीं, पर वे अभी नादान हैं। भरे फागुन सें
इस प्रकार खड़ी हैं “मानो आपषाई ह्य ह्यो । नील मसृण पत्तियां मर
` सुच्यमर शिखन्त । दौ-तीन अमरूद है, जो सूखे सावन भरे ' भादों कभी
रंग नहीं बदलते--इस समय दो-चार श्वेत पुप्प इन पर विराजमान
हैं, पर ऐसे फूल साघ में भी श्रे और जेठ में भी रहेंगे । जाती पुष्पों का
एक केदार दै, पर इन पर ऐसी सुर्दनी छाई हुई है कि मुझे कषि प्रसि*
द्वियो पर लिखे इए एक लेख में संशोधन की आवश्यकता सदसस
- हुईं है । एक सित्र ने अस्थान में एक मलिका का गुल्म भी लगा रस्य
है, जो किसी प्रकार बल जी रहा है। दो करबीर और एक कोरिदाद
छ ~ १९
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