अशोक के फूल | Ashok Ke Phool

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Ashok Ke Phool by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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< + श চি ५ न =. वसन्त खा गया € जिस स्थान पर बैठकर लिख रहा हूँ डसके आस-पास कुछ थोढ़े-से पेड दै । एक शिरीष दै, जिस पर लम्बी-लम्बी सुखी दिम्मियां अमी ल्यकी हुई दै । पत्ते कुच सूद गये हैं ओर कुछ भड़ने के रास्ते में हें ॥ जरा-सी हवा चली नदीं कि अस्थिसालिका वाले उन्मत्त कापालिक सरव की भांति खडखड़ाकर रूम उठते हैं---'कुसुम जन्म ततों नव पल्लवाः १ का कहीं नाम-गंध भी नहीं है । एक नीस है, जवान दे, मगर कुछ श्रस्यन्त छोरी किसलयिकाओं के सिवा डसंग का कोर चिह् उसमें भी नहीं है । फिर सी यह छुरा मालूम नहीं होता। मर्से भीगी हैं और आशा ठो है ही । दो कृष्णचूड़ाएं हैं। स्वर्गीय कविवर रवीन्द्रनाथ के द्वाथ से क्षगी वृत्षावलि में ये आखिरी हैं। इन्हें अभी शिशु ही कद्दना चाहिए । . कूल तो इनमें कभी झाये नहीं, पर वे अभी नादान हैं। भरे फागुन सें इस प्रकार खड़ी हैं “मानो आपषाई ह्य ह्यो । नील मसृण पत्तियां मर ` सुच्यमर शिखन्त । दौ-तीन अमरूद है, जो सूखे सावन भरे ' भादों कभी रंग नहीं बदलते--इस समय दो-चार श्वेत पुप्प इन पर विराजमान हैं, पर ऐसे फूल साघ में भी श्रे और जेठ में भी रहेंगे । जाती पुष्पों का एक केदार दै, पर इन पर ऐसी सुर्दनी छाई हुई है कि मुझे कषि प्रसि* द्वियो पर लिखे इए एक लेख में संशोधन की आवश्यकता सदसस - हुईं है । एक सित्र ने अस्थान में एक मलिका का गुल्म भी लगा रस्य है, जो किसी प्रकार बल जी रहा है। दो करबीर और एक कोरिदाद छ ~ १९




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