प्रवचन - पीयूष | Pravchan Piush

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सबको अपने समान जानो ! श्री सुविधि जिनेश्वर वदिये हो « « शानावरणीय हो, दर्शनावरणीय हो, अन्तराय कियो अन्त । ज्ञान दर्शश वल ये तिहू हो, प्रकट्या अनन्तानन्त ॥॥ प्रभु के चरणो मे बन्दन का फल अनन्त आत्मिक शक्तियों की उप- लव्धि के रूप मे बताया गया है । जब शुद्ध श्रन्त करणपूर्वक कर्म मेल को धोने का लक्ष्य वनाकर वन्दन किया जाता हूँ तो वैसे वन्दन के फलस्वरूप आत्म- शक्तियो कौ ठके हुए घने वादलो के ममान ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय एवं प्रन्तराय कर्मो का झ्रावरण छिन्न-भिन्न होने लगता ই तथा ग्रनन्त-ग्रनन्त श्रात्मिक शक्तियो का विकास एव प्रारम्भ हौ জানা ই । सच्चे ज्ञान को दवाने वाले ज्ञानावरणीय एव दशनादरणीय कफम ज्ञानावरणीय एव दणनावरणीय ये दोनों कर्म आत्मा को सच्चा ज्ञान नही होने देते । इन दोनो कर्मो के वन्धन का कारण एक ही है, किन्तु फल कुछ विलग सा होता है । चानावरणीय कर्म प्रात्मा के विशेष ज्ञान को भ्राच्छादित करता है तो दर्शनावरणीय कर्म आत्मा के सामान्य ज्ञान को दवा देता है । किसी भी परिस्थिति में पहले सामान्य ज्ञान होता है और फिर उसी से सम्बन्धित विशिष्ट ज्ञान की अनुभूति होती है । एक मनृप्य है, यह सामान्य >




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