सूरसागर | Sursagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दशम स्कघ ८६७ सुद्र स्याम कमल-दल-लोचनः, तुम श्रव दोह सहाई ऐसी बात कहां इन अगे, मेरी पत्ति जनि जाई ॥ तव इक वुद्धि रची मनहीं सन, अति आनंद हुलास | सूर स्याम राधा-श्राधा-तनः कीन्हौ वुद्धि.प्रकास ॥ 1१७६८॥२३८६॥ राय यूजरी राधा चलहु भवनहिं जाहि। कवि की हम जमुुन ई“ कर्हि अरू पछिताहि॥ कियो दरसन स्याम कौ ठुम, चलौगी की नाहिं। बहुरि मिलिहो चीन्हि राखहु, कहत, सब मुसुकाहि ॥ हम चली घर तुमहुँ आवहु, सोच भयौ मन माहि। सूर राधा सहित गोपी चली ब्रञ-समुद्दाहि।॥ ॥१७६९॥२३८७॥ राग बिलावल कहि राधा हरि कैसे दै । तेर मन भाए की नाही, की सुंदर, की नेसे हैं॥ की पुनि हमहि दुराव करौगी, की कटौ वै जैसेदै। की हम तुमसौ कति रदी ज्यौ संच कौ की तैसे दै ॥ नटवर-वेष काछनी काछे, अंगनि रति-पतिन्से से हैँ। सूर स्याम तुम नीकैः देखे, हम जानत हरि ऐसे हैं।॥ ॥ १७७०।२३८८॥ राय विज्ञाक्ल राधा मन में यहे विचारति | ये सत्र मेर ख्याल परी दैः श्रव वातनि ठै निरूवारति ॥ मोह तँ ये चतुर कदावति, ये मनँ मन मोको লাহলি। रेसे वचन कौशी इन स, चतुराई इनको भै হবি || जाकै-तंद-नेदन सिर सप्रथ, वार-वार तन-पन-घन वारति । सूर स्याम $` गवं राधिका, सधं काहू तन न निदारति ॥ 11९७७१।।२३८९




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