अथर्ववेदके सुभाषित | Atharvvedke Subhashit

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Atharvvedke Subhashit by बसन्त श्रीपाद सातवलेकर - Basant Shripad Satavlekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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काष्डोंका परियय ] बृहत्ते आल बृहत इन्द्र शूर सहस्थाधस्य, शतवीयेस्य, केन शतं सहस्र अयुतं न्यवुदं जघान शको दस्यूनामांभधाय संनया (८८७ )- हे श्रूर इन्द्र | तू सख प्रकारसे पूञ्यहे भौर तेरे अन्दर सैकढों सामथ्य हैं, तेरा यद्द बडा जाल है, उससे लो, हजार, दस हजार, राख शनुमोको भपनी सेनसि इन्द्रने मारा । अब पद्यचरताम परमाय धान, मा शकन्‌ प्रतिघामिषुं, अथैषा बहु विभ्यतां इषवो शन्तु ममेणि ( 4८1२० )-- इन शज्रुक्षोंके शस्त्र गिरिं, ये हमारे बाणोंको न सद्द सकें, हन डरनेवाले शत्रुके मसोपर हमारे बाण भाघात करें | इतो जय, इतो विजय, सं जय, जय (८५८२४ )- यहां जय प्राप्त कर, यषहांसे विजय कर, मिरूकर अय प्राप्त कर, जय प्राप्त कर । घिश्चा अमीवाः प्रसुझ्चन--पब रोग दूर दो । वेश्यानरों रक्षतु त्था-- विश्वका नेवा तेरी रक्षा करे प्रतिबोधश्व रक्षतां-- विज्ञान तेरा रक्षण करें । जाशृविश्व रक्षतां-- जागनेवाऊा तेरा रक्षण करें । हाप त्वा-- ( सृत्युसे ) तुझे वापस लाया है। सवैमायुश्च तेऽचिद्‌-- तनति पूणे भायु प्राप्त हुईं है । अप त्वस्पृत्युं **निद्ध्माखि-- तेरेसे मृत्यु दूर हुई है । “निजहि शोशुचानः- प्रकाशित होकर शत्रुका पराजय कर। रक्षसों जहि-- राक्षसोंकों पराभूत कर । अये मणिः सपत्नहा[-- यद्द मणि शात्रुनाशक है । इस प्रकार छोटे सुमाषित होते हैं । छोटे ही सुमाषित ' जेढने आहिये यह बात नहों दे । बडे पूंर मन्त्र भी बोरे जा सकते हैं। भपने पाप्त समय कितना है, रोगीके सनकी जवक्या कैसी है, उसके घरवाके मनकी किस स्थितिम्ें हैं । हम सबका विचार करके सम्पूर्ण मन्त्र बोढना या मन्श्रका আহা बोलना इसका निश्नय करना योग्य है। जिस समय चरके काग मनसे बलवान्‌ हैं, रोगीमें भी उत्साह है, पेसी अनुकूछ परिस्थितिसें पूंण मन्त्र बोक सकते हैं। पर जिस समय घरके छोग घबराये हैं, रोगी भी बेचेन है, ऐसी भवस्थामें छोटे सुभावितोंका उपयोग करना उत्तम है। समय देखकर मन्त्रविकिध्पाका प्रयोग करना योग्य है । ३ [अथ, प. भा, ३] । (१७) घन धाता दधातु नो श्य ईशानो जगतस्पतिः ( ७।१८५ १ )-- जगत्‌का घारणकर्ता जगतका पाछक इँश्वर हमें धन देपे | स नः पूर्णत यच्छतु-- वद्द ईश्वर दमें पूर्ण रीतिसे घन देवे । घाता द्धातु दाशुषे प्रार्ची जीवातम्श्चिताम्‌ ( ७ १८1२ ) सबका धारणकर्ता इंश्वर दाताके छिये प्राप्त करने योग्य भक्षय जीवनशक्ति देवे | वयं देचस्य धीमहि खुमतिं विभ्वराधसः-- दम संपूण धनोकि स्वामी भ्रसुकी उत्तम मतिको धारण करते है । धाता विश्वा वायो दघामु प्रजाकामाय दाशुषे दुरोणे (७।१८६ )-- विश्वका धारक द्वरे ठक घरमें भरपूर धन देवे जो प्रजाका हिव कनेक लिये दान देता है । ह तस्मे देवा अमृत सं व्ययन्तु विश्वे--- उसको सब देव भमृत देवे । यज़मानाय द्रविणं दधातु ( ०१८४ )-- प्रशु অয कर्ताकों धन देवें | अनु मनन्‍्यतामनुमन्यमानः प्रजाचन्तं रथि अक्षीय- माणम्‌ ( ७।२१।६ )- संतानके साथ न क्षीण हो ने- वाला भन हसें मिलते । तस्य चये देडसि मापि भूस-- उच्त प्रभुके कोपमें दम ध्वीण न हों। खुमृडीके अस्य सुमतो स्याम-- उस भख सुमति भौर रक्तम कृतिमें हस रहें । হবি नो चेदि खभगे छवीरम्‌ (७।२१।४)- हे सुभगे | उत्तम वीर पत्रकिसाय हदें धनदो) तदस्मम्य स्रार्वता खत्यछमा प्रज्ञापातरनुमातान यच्छातू ( ७२५१ ) -- वह धन हमें অঅঞনা प्रजापाऊुक जगत्‌ स्तर्टा भनुकूछ मतिसे देवे । सा नो राय विश्ववारं नि यच्छात्‌ (७।४९।१ )- वष्ट हमें ङे स्वीकारने योग्य धन देके | ददातु वीरं श्तदायभुकथ्यम्‌-- सका दान करनेषाये प्रशंसनीय वीर पुश्रको देवे ।




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