कुछ देखा कुछ सुना | Kuch Dekha Kuch Suna
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
180
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)चे दिन १७
था। कभी वीमार हो मया तो पिताजी महामृत्युजय का जाप
करवा देते थे ओर उसका सकत्प देना पडता था। बुखार
हो तो भी समय की सधि मे खटिया पर नही लेटना, यह भी
एक कडा नियम था, जो काफी अखरता था। ज्यादा बीमार
हो गए तो सुन्दरकाण्ड का पाठ और फिर अधिकाई करना
हो तो गतचण्डी। में नही कह सकता कि मेरी इन सभी चीजों
मे श्रद्धा थी। दुर्गासिप्तजती का नित्य पाठ मेने वर्षो किया
पर जव श्रद्धा हट गहं तो छोड दिया।
पर ईश्वर मे मेरी श्रद्धा रही, जो वढती ही गईं। प्रार्थना
में कुछ श्रद्धा रही, पर ज्यादा श्रद्धा काम में रही। 'हाथ काम,
मुख काम, हिरदे साँची प्रोतः यह् सूत्र कुछ ज्यादा जंचा।
जो हो, श्रद्धा रही या नही, पर जो अभ्यास करवाया
गया, वह एक स्वभाव वन गया। एक तरफ राजस्थान का
कठोर जीवन और साथ में ये माता-पिता के दिये यम-नियम,
इन्होने मेरी काफी भलाई की।
पच्चीस साल का होते-होते तो राजस्थान और राजस्थानी
कष्टो से मेरा सम्पूणं नाता टूट गया । कलकत्ता-वास ने सुख-
सामग्रियो का जो अभाव अवत्तक था, वह् सारा मिटा दिया।
पर इतने दिनो के अभ्यास के वाद इन सुख-सामग्रियो मे कोई
विशेष आकर्षण भी नही रहा ।
अजीव वात हं कि मनुष्य का स्वभाव कंसे वनता हे।
मेरा खयाल हू कि मनुप्य भी एक तरह का वक्ष हैं और कई
पहलूओ से मनुप्य और वृक्ष में कोई फर्क नहीं है। राजस्थान
से अच्छे बाजरे का वीज मंगाकर वगाल की भमि में वो
२
५
User Reviews
No Reviews | Add Yours...