युगानुकूल हिन्दू जीवन दृष्टि | Yuganukul Hindu Jeevan Drashti

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Yuganukul Hindu Jeevan Drashti by काका कालेलकर - Kaka Kalelkar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ठीक हुआ । किन्तु सस्कृति के चरम सस्कार तो धर्म से भी बलवत्तर होते हैं । और संस्कृति के लिए अन्तिम प्रमाण कोई धर्म सस्थापक, कोई घर्मग्रन्थय, कोई तत्त्वदर्शन या कोई संस्था नही होती | सस्क्ृति तो उन्नत स्वभाव से ही बनती है । जब अम्बेडकर के अनुयायी नवबोद्धों ने कहा कि, हम हिन्दू नही हैँ तब न्यायनिष्ठा कहने लगी कि तब तो आप को हिन्दू हरिजनों को दिये गये विशेष अधिकार नही मिल सकते । बात न्याय्य थी 1 लेकिन इतनी तपस्या से मिन हुए विरोष अधिकार गौर सहूलियते छोडी कंसे जायं ? नवव्रौद्धो ने कहना शुर किया कि हम हिन्दू तो नही हैं, किन्तु 'शेड्युल्ड कास्ट” ( पूर्व-भस्पुश्य ) तो हैं ही । हमे हरिजनो कै सव विशेष अधिकार मिलने चाहिए । “चुनाव की ओर पूरी नज्जर रखनेवाली राजनीति तुरन्त मान गयी । कहने रगी, “न्यायनिष्ठा जग ह, मानवतानिष्ठा अरग । मनुष्य के लिए तकं या परान्‌ का न्याय नही चकेगा 1 नवबोद्धो को अस्पृश्यों के सब विशेष अधिकार मिल गये । दूसरे शब्दो में कहें तो धौद्ध धर्म में अस्पुश्यता घुस गयी । सामान्य बौद्ध को जो विशेष अधिकार नही मिल सकते वह इन पूर्व-अस्पृश्य नवबौद्धों को मिलने लगे। बौद्धो में दो जातियाँ हुईं। वौद्ध और नव-बौद्ध हरिजन । अब ईसाइयो के वीच और मुसलमानो के बीच जो पूर्व-हरिजन हैं वे भी सोचने छगेगे कि हम ही वंचित क्यो रहें ? जब आदिमवासी ईसाई बनने पर आदिमवासी नही मिटते, उन्हें विशेष अधिकार मिलते हँ मौर एते अधिकारो के लिए, ज़ोर भी कर सकते हैं तब हमारे पूर्व-अछतो पर भी यह न्याय छागू क्यो न हो ? ५ गान्धीजी ने दोर्घदृष्टि से कहा कि अगर हर एक हिन्दू के मानस में से अस्पृश्यता पूरो नष्ट तदहो गयो, निर्मूलन हई तो हिन्दु घर्म गौर समाज का नारा अवध्य होने वाला है। हमारे राष्ट्रीय सविधान-कान्स्ट्टियूशन में अस्पृश्यता को जडम से नष्ठ करने की घोषणा तो की गयी है, किन्तु हरिजनो को ( पूर्व- अछुतो को ) विशेष अधिकार भी रखे है । ऐसा क्यो ? कारण स्पष्ट हैं। अस्पु- इयता कानून से गयी । लेकिन गाँव वाली जनता के हृदय में से और रस्म- रिवाजोमेंसे वहु नहीजासकी ह । शहरो में भो केवल खान-पान का भेद नष्ट हुआ है । लेकिन सवर्ण-हरिजन विवाहो का उत्साह के साथ अभिनन्दन অমী भी सर्वत्र नही हो रहा है। हमे दिन-रात कण्ठ कर के याद रखना चाहिए कि कानून का सहारा पौरषयुक्त, कर्त्तव्यनिष्ठ, प्राणवान्‌ जनता को ही मिल सकता ह । जनता मौर उस की संस्कृति सोये भौर केवल कानून जागता रहे तो छाभ की जगह हानि ही होने की संभावना अधिक रहती है । [ १७ ]




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