आचारांग चयनिका | Aacharang Chayanika
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
200
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)किन्तु, अपने आप पर तो प्रभाव पड़ ही जाता है । वे क्रियाएँ मनुष्य
के व्यक्तित्व का अंग बन जानी हैं । इसे ही कर्म-बन्धन कहते हैं ।
यह कर्म-बन्धन ही व्यक्ति के सुखात्मक और दुःखात्मकं जीवन का
आधार होता हैँ । इस विराट्ू बिश्व में हिंसा व्यक्तित्व को विकृत
कर देती है और अपने तथा दूसरों के दुःखात्मक जीवन का कारण
बनती है और अहिसा व्यक्तित्व को विकसित करती है और अपने
तथा दूसरों के सुखात्मक जीवन का कारण बनती है। हिसा विराद
प्रकृति के विपरीत हूँ । अतः वह हमारी ऊर्जा को ऊध्वंगामी होने से
भके
रोकती हूँ और ऊर्जा को ध्वंस मे लगा देती हूँ, किन्तु अहिंसा विराद
भक्ृति के श्रनुकल होने से हमारी ऊर्जा को ऊध्वंगामी बनाने के लिए
मार्ग-प्रशस्त करती हूँ और ऊर्जा को रचना में लगा देती है ।
हिसात्मक क्रियाएं मनुष्य की चेतना को सिकोड़ देती हैं और उसको
हास की ओर ले जाती हैं, अहिसात्मक क्रियाएँ मनुष्य की चेतना
को विकास की ओर ले जाती हैं। इस प्रकार इन क्रियाओं का
प्रभाव मनुष्य पर पड़ता हं 1 अतः आचारांग ने कहा हैं कि जो
मनुष्य कर्म-बन्धन और कर्म से छुटकारे के विषय में खोज करता हैं
बह शुद्ध-वुद्धि होता हैं। (50) ।
मृच्छित सनुष्य की दशा :
वास्तविक स्व-अस्तित्वत का विस्मरण ही मूर्च्छा ह् 1 इसी
विस्मरण के कारण मनुष्य व्यक्तिगत अ्रवस्थाओं और सामाजिक
परिस्थितियों से उत्पन्न सुख-दुःख से एकीकरण करके सुखी-दुःखी
होता रहता हैँ । मूच्छित मनुष्य स्व-अस्तित्व (भरात्मा) के प्रति जाग-
रूक नहीं होता है, वह अशांति से पीड़ित होता है, समता-भाव से
दरिद्र होता हैं, उसे अहिसा पर आधारित मूल्यों का ज्ञान देना
कठिन होता हैं तथा वह अध्यात्म को समभने वाला नहीं होता है
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