अध्यात्म-कमल-मार्तएंड | Adhyatma - Kamal - Martand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना ६. हुआ है और कब्र बना है। परन्तु विद्वान्‌ लोग श८-१६ वं तक भी इस विपयका कोई ठीक निर्णय नही कर सके और इसलिए जनता बरावर अंधेरेम दी चलती रही। ग्रन्थकी प्रौढ़ता, युक्तिवादिता श्रौर विपय- प्रतिपादन-कुशलताको देखते हुए कुछ विद्वानोंका इस विपयमें तब ऐसा खयाल होगया था कि यह अन्थ शायद पुरुषार्थसिद्धयू पाय आदि प्रंथोके तथा समयसारादिकी ठीकाओके कर्त्ता श्रीभ्रमृतचद्धाचार्यका बनाया हुआ हो । पं० मक्खनलालजी शास्रीने तो इसपर अपना पूरा विश्वास ही प्रकट कर दिया था ओर पचाव्यायी-भापादीकाकी अपनी भृमिकामें लिख दिया था कि “पंचाध्यायीके कर्ता अनेकान्त-प्रधानी आचार्यवर्य अमृतचन्द्रयूरि ही हैँ !” परन्तु इसके समर्थनमें मात्र अनेकान्तशैलीकी प्रधानता और कुछ विपय तथा शब्दोकी समानताकी जो बात कही गई उससे कुछ भी सन्तोप नही होता था; क्योंकि मूलग्रन्थमें कुछ बातें ऐसी पाई जाती हैं जो इस प्रकारकी कल्पनाके विरुद्ध पड़ती हैं। दूसरे, उत्तरबर्ती अन्थकारोकी कृतियाम उस प्रकारकी साधारण समानताश्रोंका होना कोई श्रस्वाभाविक भी नहीं है। कवि राजमल्लने तो अपने अ्रध्यात्मकमलमातंएड ( पद्म नं० १० ) में अ्रमृतचन्द्रयूरिके तत्वकथनका अभिनन्दन किया है और उनका अनुसरण करते हुए. कितने ही पद्च उनके समयसार-कलशकि अनुरूप तक रक्खे ई । श्रस्तु । पं० मक्खनलालजीकी टीकाके प्रकट होनेसे कोई ६ वर्ष वाद्‌ अर्थात्‌ श्रानसे कोई २० वर्ष पहले सनू १६२४ में मुझे दिल्ली पंचायती मन्दिरके शाल्र-भर्डारसे, चा० पन्नालालजी श्रग्रवालकी ऋपा-द्वारा, लागीसंदिता? नामक एक अश्रुतपूर्व अन्थरत्नकी प्राप्ति हुईं, जो १६०० के करीब श्लोकसंख्याको लिये हुए. श्रावकाचार-विपय पर कवि राजमल्लजीकी खास कृति है ओर जिसका पंचाध्यायीके साथ तुलनात्मक अध्ययन करने पर मुभे यह व्रिलक्रुल स्य्ट होगया किं पञ्चाध्यायी भी कवि राजमल्लजीकी ही ऋति है। इस खोजको करके मुझे उस समय बड़ी प्रसन्नता हुई---




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