हिन्दी-काव्य और उसका सौन्दर्य | Hindi Kavya Aur Uska Soundarya
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5.83 MB
कुल पष्ठ :
285
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)हि
शा
विवय-प्रवेश
शब्दोत्पत्ति
पत्थर के एक टुकड़े को हाथ में लेवार जब मैं लकड़ी के तसते पर फेंकता हूं
तो मेरी शक्ति पत्थर के माध्यम से लकड़ी को व्यस्त करती हुई ध्वनि का रूप धारण
कर लेती है; यदि पत्थर के इस टुकड़े को लोहे के खंड पर फेंका जाय तो लोहे को
व्यस्त करती हुई मेरी शवित संभवत: ध्वनि तया भर्नि दो रूपों में प्रकट हो; इसी
प्रकार मिल्न-सिनत चस्तुम्रो को व्यस्त करके मेरी शक्ति ध्वनि, अग्नि, प्रकाश, विद्युलू
तथा चुम्वक इन पाँच रूपों में से एक या झधिक रूपों में व्यक्त होगी । शविंत के इन
पाँच रूपों में से “ध्वनि सर्वाधिक पग्राह्म है, श्रौर माध्यम तथा वस्तु की व्यक्तिगत
विशेषताएं शक्ति के इस रूप को जितना प्रभावित करती है उतना दूसरों को नह्ी।
सत्य तो यह है कि शक्ति का यह ध्वनि-ख्प संघपित वस्तुसो (माध्यम, तथा प्रताड़ित
वस्तु) के श्राकार, रूप, श्रायू तथा दा के भ्रनुसार परिवत्तित होता रहता है। यही
कारण है कि श्रपने कमरे की किवाड़ों ्रौर सकल की ध्वनि सब पहिचान लेते हे, सड़क
के एक किनारे पर खड़े होकर सुननेवाले श्रम्यस्त लोग यह जान जाते हे कि दूसरे कोने
से झामे वाली 'वस' किस मॉडल की है प्रौर कितनी पुरानी है; वाइसिकिल की घंटी
और मोदर का हाँ यह यतला देते है कि श्रागन्तुक परिचित है या श्रपरिचित, श्रौर
« यदि परिचित है तो राम है या श्याम ।
हि श्रचेतन दस्तु में ध्वस्युत्पत्ति वाह्य शक्ति-संयोग से ही सम्भव है, परन्तु चेतन
में इसकी झ्पेक्षा नहीं, वातावरण-विशेष की परिस्थिति भी पशु्रों तथा पक्षियों के
हुदय में श्रमिव्यक्ति की झ्राकुलता उत्पन्न कर देती है; श्र “ध्वति' के स्थान पर 'ाब्द'
को जन्म देती है । मानवेतर जीव झात्माभिव्यक्ति में जिस 'शब्द' का प्रयोग करते हूं,
बह उनके *शाव' का वाहक है, 'विचार' का नहीं; क्योंकि मानवेततर जीवों का व्यक्तित्व
'रागात्मक तत्वों से निमित है, बुद्धिविकास का परिणाम नहीं; यह अभिव्यक्ति वैचितश्य
में सीमित परन्तु बल में श्रसीम है। जीवों की यह शब्दात्मक अभिव्यक्ति जीवन में
नित्यक्ष: दृष्टियत होती है । ऊपा की सूचना से ही ताम्रचूड प्रप्त्त होकर तारस्वर में
बोलने लगता है, सन्ध्या की लालिमा को देखकर ही पक्षीवर्ग चहचहाता हुश्रा प्रपने नीड़ों
को चल देता है, ऋतुप्रों श्र कालों का झाभास पक्षियों को मनुष्य से पूर्व ही मिल
जाया करता है । राम के वन-ममन पर राजश्नासाद के झस्दों की करुण हल पा का वर्णन
सुलसी मे तथा कृष्ण के मथुरा चले जाने पर गो-कुल की हुदय-बेघक हुक का वर्णन सूर
ने किया है; युद्धेस्यल में स्थित अरव तथा हस्ती के गर्जन से उनके स्वामी की दशा को
ज्ञान दुरस्थित स्वजनों को हो जाया करता है 1 शक्ति का जो रूप जड़ में ,'ध्वलि' कहलाता
है वही चेतन में 'शब्द', ध्वनि बाह्य-शक्ति-जत्य है ब्रौर शब्द ग्रात्सासिव्यवितल्ख्प ।
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